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________________ ७८ ] [ शासवा० स्त० १०/१७ अर्थापत्त्यापि तद्ग्रहं प्रतिपादयितुमाहशास्त्रादतीन्द्रियगतरर्थापत्यापि गम्यते । अन्यथा तत्र नाश्वासश्छद्मस्थस्योपजायते ॥१७।। शास्त्रात् वेदात्, अतीन्द्रियगतेमः धर्मा-ऽधर्मादिपरिच्छेदात्, अर्थापत्यापि-परमार्थनीत्या गम्यते सर्वज्ञः । न हि तद्वाच्यवाचकसाक्षात्कारिव्यतिरेकेण सम्यकशास्त्रादतीन्द्रियार्थगतिरित्यर्थात् तसिद्धिरिति । इत्थं तदङ्गीकर्तव्यम् । अन्यथा तत्र अतीन्द्रियार्थ नावाम:='इदमित्यमेव ' इत्येवम् छझस्थस्य अक्षीणावरणस्य प्रमातुः उपजायते, यक्ष्यमाणरीत्या शक्ति तात्पर्यनिश्चयाभावात् , निश्चितेऽप्यावरणदीपात् संशयाद्युत्पत्तेश्च ज्ञानावरणप्रकृतिकत्वाज्ज्ञानावरणकर्मणः, सर्वज्ञमूलक वनिश्च मैं गवयपदयाध्यत्व की व्याक्ति बताने में है। आ पब गयय में गोसादृश्यज्ञान से जो मीमांसक मतानुसार गो में गवयसादृश्यशान होता है अथवा न्यायमतानुसार गोसदृश पशुधिशेष में गत्रय. पदवाच्यत्व का शान होता है वह अनुमि तिरूप है। यदि यह कहा जाय कि-" जिसे गोसादृश्यविशिए गयपिण्ड का दर्शन और गोमदशा गप्रयः' इम अतिदेशधाक्यार्थ का स्मरण हो चुका रहता है उसे अन्य काल में जब गषय के साश चक्षु का सन्निकर्ष नहीं होता तब भी गोसादृश्य विशिष्ट गवय पिण्ट तथा 'गांसदृशो गवयः' इस अतिदेशवावयार्थ का स्मरपा होकर गवय में गवयपद के समय(शक्ति) का निश्चय होता है, अत: मुसे प्रत्यभिज्ञा रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि इन्द्रिय मन्निकर्य के अभाव में प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति नहीं होती तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि इस कथन से जो दोष प्रदर्शित होता है वह प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्षभेद माननेवाले लोगों पर ही लागू होता है। वह जैन विद्वानों पर लागू नहीं हो सकता, क्योंकि जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञा को परोलशान का भेद माना गया है । यदि यह कहा जाय कि-'उक्त ज्ञान अन्य परोक्ष ज्ञानों के हेतृशों से न उत्पन्न होकर उन से भिन्न हेतु से उत्पन्न होता है अत: वह परोक्षशान में अतिरिकतो यह ठीक नहीं है क्योकि हेतुभेद से अतिरिक्तता की सिद्धि नहीं हो सकती । जम. चाक्षुष-स्पार्शन आदि विभिन्न प्रत्यक्षों के वक्ष त्वक आदि विभिन्न न होने पर भी ये सब प्रत्यक्षात्मक ही होते हैं उसी प्रकार इन्द्रिय एवं अतिदेशवाक्य आदि विभिन्न हेतुओ से होनेवाले विभिन्न शान भी प्रत्यभिज्ञात्मक हो सकते हैं। यदि यह कहा जाय कि-'उपमिति को प्रत्यभिज्ञा का भेद मानने पर अनिदेशवाक्यार्थ के अनुभव के अनन्तर जब गोसशपिण्ड का दर्शन झटिति होता है तब उपमिति की उत्पत्ति न हो सकेगी क्योंकि अनुभवोत्तर स्मरण के बाद ही प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति मानी जाती है। तो इस का उसर यह है कि यदि श्रुतोपयोग-वाक्यार्थबोध का घिराम नहीं होता तो उक्त स्थिति में उपमिति की उत्पत्ति ही नहीं होती है और जब उस का उपरम हो जाता है तब वाक्यार्थ की स्मृति के सम्पन्न होने पर उपमिति हो ही सकती है ।।१६।। [अर्थापत्तिप्रमाण से सर्वसिद्धि] कारिका १७ में यह बताया गया है कि अापत्तिप्रमाण से भी सर्वक्ष की सिद्धि हो सकती है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है शान से धर्म-अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान होता है अतः अर्थापत्ति से भी सर्वत्र
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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