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[ शाखवार्ता० स्त० ११/२० युक्तं चैतत् , शान्दयोधे शक्ति-लमणान्यतरत्वेन प्रयोजकत्वापेक्षया शक्तित्वेनैव तत्त्वौचित्यादिति दिग् । नन्वेवं समयस्य क्षयोपशमार्थत्वे सर्वत्र गलितावरणानां योगिनां वाचकप्रयोगार्थ तदपेक्षा न स्यात् , इत्यत इष्टापत्तिमाह-योगिनां तु न विद्यते समयापेक्षणम् , स्वयमेव वाच्यवाचकभावं ज्ञात्वा वाचकप्रयोगादिति ॥२०॥
अन्यस्यान्यत्र समये विरोध इत्येतत् परिहरन्नाह---- सर्ववाचकभावत्वाच्छब्दानां चित्रशक्तितः।वाच्यस्य च तथान्यत्र नाऽऽगोऽस्य समयेऽपि हि ॥२१॥
सर्ववाचकभावत्वान =देशाद्यपेक्षया विलम्बितादिपतीतिजनकत्वेन सर्ववस्तुवाचकदमावत्यात्, शब्दानां चित्रशक्तितः विचित्रार्थयोधनशक्तिमत्त्वात् ; वाच्यस्य च तथा अनेकशब्दवाच्यत्वस्वभावत्वेनानेक्रपतीतिनिबन्धनानेकशक्तिमत्त्वात् , अस्य-घटादिशब्दस्य , अन्यत्रपटादौ, समयेऽपिसंकेतेऽपि, नाऽऽगा=नापराधो वृथानियोगलक्षणः , हिनिश्चितम् , अधिकृतप्रतीतिजनकत्वेनो
यदि यह शङ्का की जाय कि- 'समय (-सङ्केत) को शब्दार्थ सम्बन्ध के शानावरण के क्षयोपशम के माध्यम से ही वाचक शब्द के प्रयोग में एवं तजन्य अर्थबोध में-उपयोगी माना जायगा तो योगियों को याचकपद के प्रयोग में सवत की अपेक्षा न होगी। क्योंकि उनके समस्त ज्ञानाचरणों का भय हो चुका रहता है ।' -तो योगियों के सम्बन्ध में इस शङ्का का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उन्हे सङ्केतशान के बिना ही अर्थ और शब्द में घाच्यवाचक भाव का ज्ञान हो जाता है । अत: सङ्केतक्षान के बिना ही ये वाचकपद का प्रयोग आवश्यकतानुसार करते रहते हैं ॥२०॥
२२ वीं कारिका में अन्य पद का अभ्य अर्थ में-घटादिषद का पटादि अर्थ में-सङ्केत स्वीकार करने पर होनेवाले विरोध का परिहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
['सर्वे सर्वार्थवाचकाः ' इस पक्ष में विरोध का परिहार] सब्दों में सभी अर्थों का वाचक होने का स्वभाव है । क्योंकि सभी शब्द देश-काल-पुरुष आदि की अपेक्षा से चिलमय अथवा अविलम्ब से सभी अर्थों की प्रतीति के जनक होने हैं। शब्दों का यह स्वभाव उनमें विचित्र अर्थों की बोधक भिन्नाभिन्न शक्ति के अस्तित्व के कारण होता है । जिस प्रकार शब्दों में सभी अर्थों की याचकता का स्वभाव है उसी प्रकार अर्थ में सभी शब्दों से वाच्य होने का भी स्वभाय है। यह भी विभिन्न शब्दों से होने वाली प्रनीति की विषयता की नियामक शक्तियों के कारण होता है। अन्य शब्द का अर्थ में , जैसे घटादि शब्द का पटादि अर्थ में सङ्केत मानने पर भी इस प्रकार का कोई दोष कि- 'यदि पट आदि में घट आदि शब्द का सत है तो पट आदि अर्थों में बद आदि शब्दों का प्रयोग होना चाहिए-नहीं हो सकता । पवं 'पट आदि को घट आदि शब्दों से बोध्य होना चाहिए। इस प्रकार का भी दोष नहीं हो सकता, श्योंकि शब्द में अधिकृत अर्थ की प्रतीति की जनता होती है। अत: उक्त दोष का परिहार सम्भवित होने से शब्द और अर्थ दोनों का उक्त स्वभाव उपपन्न होता है । शब्द नियतसङ्केतज्ञान के सरकार से ही अर्थे का बोधक होता है। और नियत सङ्गत सभी शब्दों का सब अर्थों में नहीं होता। अतएव शब्द के सब अर्थों के प्रति निर्विशेषता सिद्ध न होने से उक्त प्रकार का कोई अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता। यहाँ-'जब