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स्था. क. टीका- हिन्दीविवेचन ]
[ २७५
तत्पदबोध्यत्वप्रकारकेच्छाविषयत्वस्य गौरव - व्यभिचाराभ्यामतन्त्रत्वात् । एतेन 'सतत्पद बोद्धव्यत्वप्रकारता निरूपितेश्वरेच्छाविशेष्यत्वं तचत्पदार्थ मात्रवृत्तितत्तस्पदवाच्यत्वम्' इति नैयायिका दिमतमपास्तम्, लक्ष्यादावतिप्रसक्तत्वात् ईश्वरमनत्रीकुर्वतामपि वाच्यत्वव्यवहारात् लाघ्याच्च तत्पदबोध्यत्वरूपस्यार्थधर्मस्यैव तत्त्वात् । न चैवं लक्षणोच्छेदः अर्थान्तरवोधार्थमाश्रीयमाणे संकेतान्तर एव तद्वयपदेशात् ।
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उस अभिन्न शक्ति के होने पर भी शब्द में अर्थ बोधानुकूल अतिरिक्त शक्ति के अभाव का ज्ञान हो सकता है और उस ज्ञान के होने पर भी शब्द में अर्थ बोध की सम्पादिका शब्दस्वरूप से भिन्नाभिन्न शक्ति का ज्ञान हो सकता है। यदि श में अबोध की प्रयोजिका इस प्रकार की शक्ति को स्वीकार न कर अर्थ में पदजन्य बोध विषयत्वप्रकारक इच्छा पिता को ही वाध्यतारूप माना जायगा और उसके ज्ञान को शब्दजन्य अर्थबोध का कारण माना जायगा तो शक्तिशान की कारणता की अपेक्षा गौरव होगा । तथा उक्त विषयतारूप वाच्यता का ज्ञान न रहने पर भी अमोध की सम्पादिका शब्दस्वरूप से भिन्न भिन्न शक्ति के ज्ञान से शाब्दबोध की उत्पत्ति होने से व्यभिचार भी होगा । अतः पदजन्य बोध विषयत्य प्रकारक इच्छा विषयत्वरूप वाच्यत्व शाब्दबोध का प्रयोजक है ।
[ नैयायिक अभिमत शक्तिपदार्थ का निरसन ]
इस सन्दर्भ में नैयायिकों का यह कहना है कि- ' तत्तत् अर्थ निष्ठ तत्तत्पदवाच्यता का ज्ञान तत्तत्पदजन्य तत्तत् अर्थ विषयकषोध का कारण है। और तत्तत्पदवाच्यत्व तत्तत्पदजन्यबोध विषयत्वप्रकारक ईश्वरेच्छा की विशेष्यतारूप है । किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि वाच्य ( शक्य ) अर्थ के समान लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्यक पदजन्य बोधविषयत्वमकारक ईश्वरेच्छाविषयता रहती है। क्योंकि ईश्वरेच्छा सर्वविषयक होती है । अतः लक्ष्य अर्थ लक्ष्य पदजन्य बोधविषयता प्रकारक ईश्वरेच्छा का विषय होना अनिवार्य है । फलतः पदजन्य बोधविषयत्वप्रकारक ईश्वरेला विपयता को पदवाच्यत्वरूप मानने पर लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्य पद के बाध्यताध्यवहार की आपत्ति होगी। इसके अतिरिक्त उक्त वाध्यताज्ञान को शाब्दबोध का कारण मानने पर अनीश्वरवादी को शाब्दबोध न हो सकेगा। क्योंकि उसके मत में ईश्वर का अस्तित्व ही न होने में उस अर्थ में पहजन्य योधविपत्कार ईश्वरेला विषयत्व का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए लाघव के कारण तत्तत्पदबोध्यत्वरूप अर्थधर्म को ही तत्तत्पदवाच्यतारूप, और उसके ज्ञान को ही तत्तत्पदाधीन अर्थबोध का कारण मानना उचित है। यदि यह कहा जाय कि- 'तसत्पदबोध्यत्व को तत्तत्पदवाच्यत्वरूप तत्तत्पद की शक्ति मानने पर लक्षणा का उच्छेद हो जायगा क्योंकि लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्यपबोध्यस्थ रहता हैं और तत्तत्पदबोध्यत्व को तत्तत्पदवाच्यतारूप मानने के पक्ष में वदी शनिरूप हो जायगा ? - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वास्तव में लक्षणा सङ्केत से अतिरिक्त कोई वृत्ति नहीं है। अपितु प्रसिद्ध अर्थ से भिन्न अर्थ के बोध के लिए शब्द में उस अर्थ का जो अन्य संकेत माना जाता है उसी को लक्षणशब्द से व्यवहृत किया जाता है। अतः वास्तव में लक्षणा सङ्केत से भिन्न नहीं है और यही उचित भी है । क्योंकि लक्षणा को सङ्केतात्मक शक्ति से भिन्न मानने पर शब्द जन्य अर्थ बोध के प्रति शक्ति-लक्षणा अन्यतर को प्रयोजक मानना होगा। जो दक्षणा को शक्ति में अन्तर्भावित कर शक्तिमात्र को शब्दजन्य अर्थ बोध का प्रयोजक मानने की अपेक्षा गौरवग्रस्त होने से व्याज्य है ।