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[ शास्त्रमा० स्त० १६/२० नन्वेवं शब्दाऽथयोः स्वाभाविकसंबन्ध-सत्येतरादिभेदसाम्राज्ये संकेतवैयय॑म् , स्वत एवं शब्दस्यार्थप्रतिपादनयोग्यतायां संकेताऽदर्शिनोऽपि स्वतोऽर्थपतिपत्त्यविरोधादित्याशङ्क्याहसंमयापेक्षणं चेह तत्क्षयोपशमं विना । तत्कतत्वेन सफल योगिनां तु न विद्यते ॥२०॥
समयापेक्षणं चसकेतपतिसंधानान्वय-व्यतिरेकानुविधानं च, इह-शब्दस्थले, तत्क्षयोपशमं बिना शब्दार्थसंबन्धज्ञानावरणक्षयोपशम विना, तत्कर्तत्वेन उक्तक्षयोपशमकतत्वेन , सफलं
सार्थकम् , शाब्दबोधे शक्तिमहस्यैव हेतुत्वेऽपि संकेतस्य तदभिव्यञ्जकत्वेनोपयोगात् । यत्तु एवं शक्तिव्यञ्जकत्वाभिमतस्य संकेतमहस्यैव शाब्दबोधहेतुत्वौचित्यम्' इतिः तल, पट्वन्यासे संकेतमननुस्मृत्यापि वाच्यताज्ञानेन शाब्दबोधोदयेन व्यभिचारात् । यत्त 'अतिरिक्त शक्त्यभावज्ञानेऽपि शाब्दबोधोदयात् संकेतज्ञानमेव शाब्दप्रयोजकम् ' इति ; तत्तु धर्म-धर्मिणोर्भेदाभेदयादिनां न दोपावहम् ,
उक के सन्दर्भ में यह शङ्का होती है कि-"जब शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध है एवं सस्य, असत्य शब्दों में भेद है तब अर्थ विशेष में शब्द विशेष का उत मानना ध्यर्थ है । क्योंकि जिस मनुष्य को जिस अर्थ में जिस शहद का सङ्केतलान नहीं है उस मनुष्य को भी शब्दार्थ के स्वामाचिक सम्बन्ध होने के कारण उस शब्द से उस अर्थ का बोध मानने में कोई विरोध नहीं है ।"-इसी शङ्का के परिहारार्थ २० वीं कारिका प्रवृत्त है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
[शाब्दबोध में शक्तिग्रह की हेतुता का समर्थन] अर्थविशेष' में शब्द विशेष के स्वाभारिक सम्बन्धरूप शक्ति के होने पर भी जब तक उसके ज्ञानाचरण का क्षयोपशम नहीं होता तब तक शम्दार्थ का बोध नहीं होता । अतः उस के लिये अर्थ घिशेष में शब्दविशेष का सत और उसका शान आवश्यक है।
इसी बात को स्यात्याकार ने इस रूप में कहा है कि शाकदबोध में सतग्रह के अन्वय व्यतिरेक का जो अनुविधान होता है अर्थात् सङ्केतशान के होने पर जो शाब्दबोध का जन्म होता है और सतत्रान के अभाव में जो शब्दयोध का जन्म नहीं होता है वह शाब्दबोध में अपेक्षित वार्थ सम्बन्ध के शानावरण के क्षयोपशम के द्वारा होता है । यह ठीक है कि 'शाम्रोध में शक्तिशान ट्वी कारण होता है, उसमें सनशान की कारणता निर्विवाद सिद्ध नहीं है' तथापि शक्तिप्रह के लिए सङ्केतशान की उपयोगिता अनिवार्य है। तो अवश्यक्लप्सनियत पूर्ववर्ती होने से सकतज्ञान को ही शाब्दबोध का कारण मानना उचित है न कि शक्तिग्रह को' ऐसा जो कथन है वह भी ठीक नहीं हैं, क्योकि पटु अभ्यास की दशा में अर्थात् शब्दविशेष से अर्थविशेष के बोध का पुन: पुनः जन्म होने की स्थिति में सङ्केतक्षान के बिना भी अर्थ में शब्द की वाच्यता का ज्ञान होकर शायबोध का जन्म होने से शामयोध के प्रति सतज्ञान की कारणता में व्यतिरेक व्यभिचार है।
इस सन्दर्भ में कुल जिद्वानों का जो यह कहना है कि 'शब्द में अर्थ बोधिका शब्दस्वरूप से अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है, यह शान रहने पर भी शाबोध होता है । अतः अतिरिक्त शक्ति को माने बिना मात्र संकेतशान को ही शाब्दबोध प्रयोजक मानना चाहिए' -यह धर्म और धर्मों में भेदाभेदवादी के मन में किसी दोप का आषादक नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द में अर्थ-बोधिका जो शक्ति मानी जाती है यह सदस्वरूप से सर्वथा भिन्न नहीं है । अत: