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________________ स्या, क. टीका-हिन्दीषिवेचन ] [ २७३ परैरपि सदसदर्थप्रतिभासाऽविशेषेऽपि संवादाऽसंवादाभ्यामेव भेदाभ्युपगमात् । न चैकान्ततुल्ययोः संवादाऽसंवादसंभव इति विभावनीयम् । अथ स्वातिरिक्तगुण-दोषसंबन्धादेव तेपामेकान्ततुश्यत्वं न भविष्यति, इति किं स्वरूपभेदेन ?, अन्यथा कालभेदेन भ्रम-प्रमाजनकचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदः स्यादिति चेत् ? न, सत्येतरादिशब्दानां सर्वथा स्वरूपामेदे. संवादेतराद्यनापत्तेः, कार्यभेदे स्वभावभेदस्य प्रयोजकत्वात् , सहकारिभेदस्याप्यजनकस्वभानपरित्यागौपायकत्वात् , निर्मलाऽनिर्मलचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदाभ्युपगमात् । इप्यते च सत्येतरादिव्यबहारभेदादपि सत्येतरादिभेदः, असति साधके व्यवहारस्यापि प्रमाणत्वात् , स च हेतुभेदमाक्षिपतीति कान्योन्याश्रयः ? इति दिग ॥ १९ ।। प्रमाताओं को प्रमाण और प्रमाणाभास के भेद का बोध होता है उसीप्रकार सत्य शब्द (-प्रमाणभूत शब्द ) और असत्य शब्द (-अप्रमाणभूत शब्द ) के भी भेद का ज्ञान सम्बाद और विसम्वाद से होता है। कोपि मायाद और घिसम्वाद में सम्बाध और विसम्बाध के भेद की व्याप्ति लोक में दृष्ट है। अत: इस व्याप्ति के बल पर सम्बाय और विसम्याद द्वारा सत्य और असत्य शब्दों में भेद की सिद्धि निर्बाध रूप से सम्भव है। प्रतिवादी भी सत्य शब्द और असत्य शब्द से होने वाले सदर्थविषयक और असदर्थविषयक प्रतिभास के समान होने पर भी सम्वाद और विसम्बाद से ही सत्य असत्य शब्दों में भेदशान का अभ्युपगम करते हैं। क्योंकि यह ज्ञातव्य है कि जो एकान्त सुल्य (-सर्वथा समान ) होते हैं उनमें सम्याद और विसम्बाद नहीं होता, यह तो परस्पर भिन्न में ही होता है। [ सत्य-असत्य शब्दों में स्वरूप भेद का समर्थन ] यदि यह कहा जाय कि-'अपने द्वारा होने वाले गुण दोषों से ही सत असत् शब्दों में पकान्त तुल्यता का अभाव हो जायगा । अतः उनमें स्वरूप भेद् मानना उचित नहीं है। और यदि-गुण दोषात्मक कार्यभेद के कारण स्वरूपभेद माना जायगा तो कालभेद से प्रम और प्रमारूप भिन्न कार्यों का जनक होने से चक्षु आदि में भी स्वरूप भेद की आपत्ति होगीतो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सत्य और अमत्य शब्दों में यदि स्वरूपभेद न होगा तो उनमें क्रम से सम्बाद और असम्वाद की उपपत्ति न हो सकेगी । क्योंकि कार्यभेव स्वरूपभेदाधीन होता है। यदि यह कहा जाय कि 'दो कारणों में स्वरूपतः अभेद होने पर भी सहकारी के भेद से कार्यभेद की उपपत्ति हो सकती हैं तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सहकारी कार्य का जनक नहीं होता अपितु मूल कारण के अजनकत्व स्वभाव को दूर करने में ही उपयोगी होता है। और सच तो यह है कि प्रमाजनक निर्मलचक्षु और भ्रमजनक अनिमलचक्षु में भी स्वरूप भेद होना ही है । यह भी ज्ञातव्य है कि सत्य और असत्य हयवहार से भी सत्य और असत्य शब्दों का भेद सिद्ध होता है, क्योंकि बाधक न होने पर व्यवहार भी प्रमाण होता है। इस प्रकार व्यवहारभेद से सिद्ध शब्दभेद से जब हेतुभेद का आक्षेप (अनुमान) सम्भव है तो हेतुभेद से शब्दभेद स्वीकार करने में अन्योन्याश्रय का अवसर कहाँ है ? ||१९||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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