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________________ [ शासवार्ता० स्त० ११९ पदाऽशक्तेस्तेषामप्रत्यायकत्वापत्तिः, अर्थाऽसत्त्वेऽपि मृषाभाषावर्गणाप्रसूतानां शब्दानां तच्छन्दजनन्याः शक्तेर विरोधात् । न चैवं प्रधानादिपदजनितविकरुपस्याखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टविषयकत्वेऽ-सत्स्यात्यापत्तिः, विकल्पस्यापि कस्यचिदखण्टेकविषयत्वाननुभवात् , निरंशेऽर्थे संशयधीपसराऽयोगान, प्रकृते यथान्यसमयसंकेतानुसार शशविषाणादिसंकेतिततदादिपदार्थवद्वाक्यार्थमयत्वात् पन्द्रार्थस्य तत्सद्भाबतात्पर्यादसद्भुतोद्भावनरूपमृषायादोपपत्तेः । अत एव परसमयाभिधानपराणां निषेधपराणां चासत्यभाषावगणाप्रसूतवाक्यस्थानां प्रकृत्यादिपदानां सद्भावानभिप्रायाद् न मृषात्वम् । अत एव च पाण्डुरपत्रकिशलयादिवृत्तान्तार्थानामुपमावचनानां स्वार्थबाधेऽपि तात्पर्ये प्रामाण्याद् न तथात्वमिति दिग । तत्त्वमत्रत्य मत्कृतभापारहस्यादवसेयम् ।। १८ ।। ननु शब्दभेदसिद्धौ तस्य हेतुभेदनियम्यत्वाद् हेतुभेदसिद्धिः, तसिद्धौ च शब्दभेदसिद्धिरित्यन्योन्याश्रय इत्याशङ्क्याहज्ञायते तद्विशेषस्तु प्रमाणतरयोरिव । स्वरूपालोचनादिभ्यस्तथादर्शनतो भुवि ॥ १९ ॥ ज्ञायते प्रमातृभिः, तद्विशेषस्तु सत्येतरशब्दभेदम्तु प्रमाणेतरयोरिव-प्रमाण-सदाभासयोरिख, 'स्वकृतप्रतिभाससाम्येऽपि विशेषः' इति योजना । स्वरूपालोचनादिभ्यः-संवादाऽसंबादनिरूपणादिभ्यः । एषां भेदव्याप्यत्वमाह भूचि=थिन्याम् , तथादर्शनतः, अनेन प्रकारेण तद्भेदसिद्धेः, अनुभव नहीं होता! श्वं जो अर्थ अंशहीन होता है उसमें संशयात्मकज्ञान का भी उदय नहीं होता। प्रकृत विषय के सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि जैसे अन्य मत के संकेतात्मक समय के अनुसार जब तत्' आदि पद शशविषाण आदि में सङ्केतित होता है तो उसका अर्थ पदार्थ होने पर वाक्यार्थ रूप भी होता है, उसी प्रकार प्रधानादि पदं के अर्थ के भी बाक्यार्थात्मक होने से यह कहा जा सकता है कि प्रधान आदि पद का प्रयोग असदभूत अर्थ का उभाषक होने से प्रधान आदि पद भी मृषावाद है। यही कारण है जिससे अन्य मत के सङ्केतित अर्थ के प्रतिपादकतथा निषेध बोधक प्रकृति आदि पद जो असत्यभाषा की बगंणा से उत्पन्न बाझ्या के घटक होते हैं वे अपने प्रतिपाच अर्थ के अस्तित्व प्रतिपादन में अभिप्राय न रखने से मृषा नहीं होते। और इसीकारण से यह भी बात उपपन्न होती है कि पाण्डर पत्र किसलयादि दृष्टान्तभूत अर्थों के बोधक (उपमावाची) शब्दों के अर्थ का बाध होने पर भी तात्पर्य में प्रमाण होने से उनमें मृषात्व नहीं होता। प्रस्तुत विषय की तात्विकता के बोध के लिए ध्यारूपाकार के भाषारहस्य नामक ग्रन्थ का अवलोकन अपेक्षित है ॥ १८ ॥ [ हेतुभेद-शब्दमेद दोनों में अन्योन्याश्रय का निरसन ] पन्द्रहवीं कारिका में हेतुभेद से शब्दभेद की सिद्धि बतायी गयी है। उस पर यह शङ्का होती हैं कि-शभेद सिद्ध हो जाने पर उसके हेतुभेद से नियम्य होने के कारण उससे हेतुभेद की सिद्धि होगी; और हेतुभेद सिद्ध हो जाने पर उससे शब्दभेद की सिद्धि होगी। अतः हेतुभेद से शब्दभेद की सिद्धि अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है।' १९वीं कारिका इसी शङ्का का परिहार करने के लिए प्रवृत्त है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-जैसे प्रमाण और प्रमाणामास से उत्पन्न प्रतिमास के समान होने पर भी प्रवृति के संबाद मौर विसंवाद से
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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