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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
इत्थं च “अस्तु पौरुषेयविषयेयं व्यवस्था, अपौरुषेये तु दोपनिवृत्त्येव प्रामाण्यम् " इत्यपहस्तितम् , गुणनिवृत्त्याऽभामाश्यस्यापि संभवात् । 'तस्याऽपामाज्यं प्रति सामर्थ्य नोपलब्धमिति चेत् ! दोपनिवृत्तेः प्रामाण्य प्रति क्व सामर्थ्यमुपलब्धम् । लोकवशादिति चेत् ! तदितरत्रापि तुश्यम् । 'लोकवचसामग्रामाण्ये दोषा एव कारणम् , गुणनिवृत्तस्त्वसामर्थ्यमिति चेन् ? प्रामाण्यं प्रति गुणेष्वपि तव्यमेतत । 'गणानां दोपोत्सारणप्रयुक्तः संनिधिोरिति चेत् ? दोषाणामपि गुणोत्सारणप्रयुक्तोऽसावित्यस्तु । अथवं वेदानामपौरुषेयतया गुण-दोषयोरुभयोरप्यभावे तद्धे तुकयोः प्रामाण्याजाती है। यदि ऐसा न माना जायगा तो देह में जो आत्मा का अभेद भ्रम होता है उस में भी सम्यकदर्शनरूप गुण के अभाय से अतिरिक्त दोष का दर्शन न होने के कारण उस के कारणरूप में मिथ्याशान जन्य वासनारूप दोष की कल्पना न हो सकेगी।
[इन्द्रिय में भी दोष की तरह गुण की सत्ता भी वास्तविक ] सत्य बात यह है कि इन्द्रिय में जैसे पित्तादिदोष होता है उसी प्रकार नर्मल्य आदि गुण भी होता है अतः यह कहना की शंख में श्वैत्य की प्रमा पित्त दोष के अभाव से ही उत्पन्न हो जाती है उस में गुण अपेक्षित नहीं होता' ठीक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि नर्मल्य इन्द्रिय का गुण नहीं है किन्तु इन्द्रियस्त्ररूप ही है' तो यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात दोष के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि पित्त भी इन्द्रिय का दोष नहीं किन्तु इन्द्रिय स्वरूप ही है क्योंकि जैसे उत्पन्न होते ही इन्द्रिय में नमल्य देखा जाता है, वैसे ही उत्पन्न होते ही इन्द्रिय में पित्तदोष भी देखा जाता है अर्थात् जैसे इन्द्रियाँ जन्म से ही निर्मल होती है, वैसे ही अनेकों की इन्द्रियाँ जन्म से ही सदोष भी होती हैं। यदि यह कहा जाय कि ' उत्पन्नमात्र इन्द्रिय में नल्य का अनुभव होता है किन्तु दोष का अनुभव नहीं होता' तो यह बात भी दोष और गुण दोनों में परिणतिभेद की स्थिति में समान हैं । अर्थात् इन्द्रिय की निर्मल इन्द्रियरूप में परिणति होने पर जैसे इन्द्रिय के नमल्य का अनुभव होता है उसी प्रकार इन्द्रिय की सदोष इन्द्रियरूप में परिणति होने पर इन्द्रियदोष का भी अनुभव होता है। अथवा परिणतिभेद का यह भो अर्थ हो सकता है कि जैसे वस्तु के यथार्थदर्शनस्वरूप इन्द्रिय की परिणति यानी इन्द्रिय का कार्य होने पर इन्द्रिय का नेमल्य अयगत होता है उसी प्रकार वस्तु के अयथार्थ बोधरूप इन्द्रिय की परिणति होने पर इन्द्रियदोष भी अवगत होता है।
[अपौरुषेय वाक्य में अप्रामाण्य की आपत्ति उक्त रीति से विचार करने पर यह कथन कि-'पोकषेय वाक्य में तो बक्ता के गुण से प्रामाण्य की व्यवस्था होती है किन्तु अपौरुषेय वाक्य में दोषाभाष से ही प्रामाण्य होता है - निरस्त हो जाता है क्योंकि अपौरुषेय वाक्य में दोपनिवृत्ति से जैसे प्रामाण्य का संभव है वैसे ही गुणनिवृत्ति से अप्रामाण्य भी संभव हो सकता है।
यदि यह कहा जाय कि- गुनिवृत्ति अप्रामाण्य के सम्पादन में समर्थ है यह कहीं उपलब्ध नहीं है तो यह भी कहा जा सकता है कि दोषनिवृत्ति प्रामाण्य के प्लम्पादन में समर्थ है यह कहाँ उपलब्ध है ? यदि इस के उत्तर में लोकव्यवहार में उस की उपलब्धि बतायी जाय तो ऐसा उत्तर गुणनिवृति में अप्रामाण्य सम्पादन के सामर्थ्य के विषय में भी दिया जा सकता है।