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[ शासवार्ताः स्त०१०! १५
ऽपामा प्रययोरभावाद् निःस्वभावत्वं स्यादिति चेत् ! पामर ! हन्त । एवं मिथ्यामतिर्सनिपातग्रस्तमात्मानमुपालभस्व, यदमीपामकर्तृकत्वं प्रलपसि | करिष्यामोऽत्र निपुणं चिकित्साम् । ततो यथाक्रम द्वेषाभावस्य रागाभावस्य चाऽचिनामावेऽपि यथा प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रयत्नयो राग-द्वेषयोरेव हेतुत्वं तथा दोषाभावस्य गुणाभावस्य चाचिनाभावेऽपि प्रामाण्य-प्रामाण्ययोर्गुणदोषयोरेच हेतुत्वम् ' इति वदन्ति । इत्थं च सर्वज्ञपमायां सम्यग्दर्शनादिगुणापेक्षणादुत्पत्तौ परतस्त्वम्, ज्ञप्तौ तु सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यस्य स्वाश्रयेणैव ग्रहणात् स्वतस्त्वमेव ।
यदि यह कहा जाय कि-लौकिकवाक्य के अमामाण्य में दोष ही कारण होते हैं। गुणमिवृत्ति उस के प्रति असमर्थ है' तो यह बात भी प्रामाण्य के प्रति गुणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि प्रामाण्य के प्रति गुण ही कारण है। दोषनिवृत्ति प्रामाण्यसम्पादन में असमर्थ है। __यहिं यह कहा जाग कि-'गुणों का सन्निधान दोषनिवृत्ति से ही होता है अत: गुण का उपजीव्य होने से दोपनिवृत्ति ही प्रामाण्य की सम्पादक होती है तो यह बात दोष के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि दोर्षों का सनिधान भी गुणा. भावमूलक होता है अतः दोषसन्निधान का उपजीव्य होने से गुणाभाव ही अप्रामाण्य कर सम्पादक होता है।
[अपौरुषेय वेद में निःस्वभावता की आपत्ति] यदि यह आशंका हो कि- वेद को अपौरुषेय मानने पर उस में गुणदोष दोनों का ही अभाव होगा अतः गुणहेतुक प्रामाण्य और दोषहेतुक अप्रामाण्य दोनों के न होने से वेद निःस्वभाष हो जायगा क्योंकि ज्ञान के विषय में शब्द के उक्त दो ही स्त्रभाव होने हैं'-तो इस के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त प्रश्न को प्रस्तुत करनेवाला व्यक्ति पामर है, पवं मिथ्याशानरूप सन्निपात से ग्रस्त हैं। अतः उसे इस आशंका का साहस करने के लिये अपने आप को ही उपालम्भ देना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं आगम अकर्तृक होने का प्रलाप करता है। व्याख्याकार का कहना है कि उस का यह प्रलाप जिम मिथ्याक्षानरूप. सन्निपान के कारण है उमकी चिकित्सा वे निपुणता से कर देंगे।
प्रस्तुत विचार कर उपसंहार करते हुये व्याख्याकार ने विद्वानों के इस कथन का उल्लेख किया है कि जैसे प्रवृत्ति में द्वेषाभाव का एवं निवृत्ति में रागाभाय का अविनाभाव होने पर भी प्रवृत्ति के प्रति रोपाभाघ कारण नहीं होता किन्तु राग ही कारण होता है एवं निवृत्ति में रागाभाय कार नहीं होता किन्तु स ही कारण होता है उसीप्रकार प्रामाण्य में दोषाभाय का पयं अप्रामाण्य में गुणाभाय का अविनाभाव होने पर भी प्रामाण्य के प्रति गुण ही कारण होता है दोषाभाच कारण नहीं होता, पवं अप्रामाण्य के प्रति दोष ही कारण होता है गुणाभाष कारण नहीं होता।
उक्त रीति से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि सर्यक्ष की प्रमा में सम्यगदर्शन आदि गुण की अपेक्षा होने से उसकी उत्पत्ति तो परतः अर्थात् ज्ञानसामान्य के हेतु से अति. रिक्त हेतु से होती है किन्तु प्रमात्यरूप से उस की शान्ति स्वतः होती है क्योकि सर्वश के मान में विद्यमान प्रामाण्य, अपने आश्रयभूत सर्वज्ञशान से ही गृहीत होता है।