SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन] [४९ अत्र प्रामाण्यज्ञप्तौ स्वतस्व-परतस्त्वयोर्वादिनां विप्रतिपत्तिः । तत्र 'प्रामाण्यं स्वाश्रयेणेव गृह्यते' इति प्राभाकराः; 'स्वानुव्यवसायिना' इति मुरारिमिश्राः; 'स्वजन्यज्ञाततालिङ्गकानुमित्या' इति भाटाः । इत्थं च स्वतस्त्ववादिनामामा प्याऽग्राहक-यावज्ञानग्राहकसामनीग्राह्यत्वमभिमतम् , परतस्त्ववादिनां तु नवम् । तत्र ज्ञानस्याऽस्वसंविदितत्वस्य ज्ञाततायाश्च निरासाद मिश्रमतं भट्टमतं चासंभवदुक्तिकम् । [प्रभाकर-मिश्र-भट्ट के मत में स्वतः प्रामाण्य का स्वरूप ] प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व-परतत्व के सम्बन्ध में धादियों में मतभेद है। मीमामा के सभी प्रस्थानों में प्रामाण्य की ज्ञप्ति में यधपि स्वतस्य ही माना गया है तथापि उन प्रधानों द्वाग स्वीकृत स्वतस्त्व के स्वरूप में पर्याप्त भिन्नता है। जैसे प्रभाकर प्रस्थान के अनुयायी विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने आश्रयभून शाम से ही गृहीत होता है। मुरारिमिश्र द्वाग प्रतिस्थापित प्रस्थान के अनुगामी विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने आश्रयभूतान के अनुव्यवसाय से गृहीत होता है। तथा कुमारिलभद्र द्वारा प्रतिष्ठापित प्रस्थान के अनुसरणकर्ता विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने अामत हारनामानित होनेवाली स्वाश्रयज्ञान की अनुमिति से गृहीत होता है । तीनों प्रस्थानों के इस विविध स्वतस्त्व को एक शम्न संदर्भ से अभिहित किया जाता है वह शब्द है 'अप्रामाण्याऽग्राहक यावज्ज्ञानग्राहक सामग्रीयाद्यत्व'-इस का अर्थ यह है कि___अप्रामाण्य को ग्रहण न करनेवाली और ज्ञान को ग्रहण करनेवाली जितनी सामग्री होती है उन सभी सामग्रियों से गृहीत होना । इस के अनुसार सभी मीमांसकों का यह मत विदित होता है कि 'जिस शान का ग्रहण उस शान के अप्रामाण्य को ग्रहण न करनेवाली जितनी सामग्रियों से उत्पन्न होता है उस ज्ञान का प्रामाण्य भी उन सभी सामग्रियों से गृहीत होता प्रभाकर और मिश्र के मत्त में लक्षण संगति] प्रभाकर के मत में शान स्वप्रकाश है, उन के मत में ज्ञान की उत्पादक सामग्रो ही ज्ञान की ग्राहक एवं प्रामाण्य की ग्राहक सामग्री है, अतः उसी से झान का प्रामाण्य गृहीत होता है । इसलिये उन के मत में ज्ञानमात्र “अहमिदं घस्नु प्रमिणोमिन्में इस वस्तु की प्रमा का आश्रय हूँ" इसी आकार में ही उत्पन्न होता है। प्रभाकर का यह मत शान त्रिपुटीवाद के. नाम से प्रसिद्ध है। जिस का अर्थ यह है कि प्रत्येक शान; १. शाता, २ विषय और ३ प्रमान्यरूप से अपने ज्ञानस्वरूप इन तीनों को विषय करता है। मुरारि मिश्र के मत में ज्ञान का ग्रहण, ज्ञान का मानसप्रत्यक्षरूप अनुव्यवसाय शान से होता है । अत पय उनकै मत में ज्ञान के मानसप्रत्यक्ष की सामग्री ही अप्रामाण्य की अग्राहक पयं प्रामाण्य की ग्राहक होती है। उस सामग्री ले ही ज्ञान गतप्रामाण्य का ग्रहण होने से उत्स के मत में ज्ञान का अनुव्यवसाय · अहमिदं प्रमिणोमि' इस रूप में ही उत्पन्न होता है । शान तो इदम् अमुकम् वस्तु यह अमुक वस्तु है-इस रूप में ही उत्पन्न होता है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy