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________________ ७२ 1 [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०७ विषयतृडपहायब विज्ञप्त्याख्यसम्यग्दर्शनरूपं ज्ञानम् नान्यत् , अभक्ष्याऽस्पर्शनीयन्यायेनाऽज्ञानत्वात् । तत्र विचिदिपाख्या तत्वचिन्ता हेतुः, तत्र सुखाख्यः सानुबन्धः क्षयोपशमः, तत्र श्रद्धाख्या तत्त्वरूचिश्चक्षुगुणस्थानीया । तत्र चेहलोकादिभयप्रतिपक्षो धृत्याख्यश्चेतःस्वास्थ्यपरिणामः, इति सम्यग्दर्शनगुणस्य श्रद्धादिगुणवतैशवाप्तेर्न मोझोपायस्य प्रथमं निगुणेनैव सताऽवाप्तवं सिद्धमस्ति । श्रद्धादौ धृत्यादेविशिष्य हेतुत्वेऽपि धृत्याद्यनुगतविशिष्टगुणत्वाबच्छिन्नेऽपुनर्बन्धकयोग्यताया हेतुत्वाद् न व्यभिचारः। उक्तं च भगवद्गोपेन्द्रणापि-- 'निवृत्ताधिकारायां प्रकृती धृतिः श्रद्धा सुखा विविदिषा विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः, [ पूर्वपूर्वगुणसम्पदा से उत्तरोत्तर गुणवृद्धि ] इस सन्दर्भ में ही यह भी शडा की गई थी कि-जब पहले निर्गुण को ही गुण को प्राप्ति होती है, सब बाद में भी गुणप्राप्ति के लिये पूर्व गुण की अपेक्षा क्यों को जाय ?' किन्तु यह शङ्का भी समीचीन नहीं है क्योंकि पूर्व गुणों की अपेक्षा से ही उत्तर उत्तर गुणों को समृद्धि होती है, क्योंकि उपादान के उत्तरोत्तर उपचय के विना उपविय का उत्तरीसर उपचय नहीं होता। इसीलिये उत्कृष्टस्थिति से लेकर प्रन्थि देश की प्राप्ति तक पूजामिलाष प्रादि से होनेवाले शुश्रूषा आदि को गुण नहीं माना जाता, क्योंकि पूर्वोत्तरभाष के गुणक्रम से अनुप्रविष्ट न होने से उन से फल की प्राप्ति नहीं होती। उमसे फलप्राप्ति न होने का यह भी कारण है कि पूजाभिलाष आधि से शुश्रूषा आदि होने पर भी क्षयोपशमवृशि रूप फलोत्पादक योग्यता नहीं होती। इस योग्यता के न होने का कारण यह है कि विषय-विष की कामना को निवृत्त करने वाले लोकोत्तर भावरूप अमत का प्रास्वाद पूजामिलाषगभित शुश्रुषादि में नहीं होता। किन्तु जब तत्त्वचिन्ता-तत्त्वजिज्ञासा होने पर शुश्रुषा आदि होते हैं तब अनन्त पापपरमाणुओं की निवृत्ति होने से प्रतिगुण में तत्त्वज्ञानरूप फल का सम्बन्ध होता है, अत: तत्त्वचिन्तामूलक शुश्रूषा आदि तत्त्वत: गुणरूप होते हैं। यद्यपि पूजाभिलाष प्रावि से होनेवाले शुश्रषा आदि तथा तत्त्वचिन्ता से होनेवाले शुभषा आदि में बाह्याकार की दृष्टि से साम्य है तथापि फलभेद से उनमें अग्रणहपता एवं गुणरूपता मुलक भेद हो सकता है। यह बात अन्य f मान्य है ! जिसे अवधूताचार्य ने यह कह कर सूचित किया है कि-तत्वमूत शुश्रूषा आदि अप्रत्ययानुग्रह के बिना नहीं होते क्योंकि वे जल, दुग्ध, और अमृत के समान शोधक, पोषक तथा अमरत्वसम्पादक ज्ञान के जनक नहीं होते । अप्रत्ययानुग्रह का अर्थ है अप्रत्यय का साहाय्य उस का योगलम्य अर्थ है प्रत्ययत्व-कारणत्व का विरोधी ज्ञानावरणादिकों में विद्यमान आवरणकारणता का विरोधी होने से अप्रत्यय का अर्थ है कर्मों का क्षयोपशम । उसके प्रसन्निधान में सस्वशुश्रूषा आदि से तत्त्वज्ञान का उबंध नहीं होता, इसीलिये ऐसी तत्त्वशुभषा शास्त्रदृष्टि से गुणरूप नहीं हाती, किन्तु लोक दृष्टि में यह भी तत्वशुश्रूषा तो है ही अतः यह तत्त्वज्ञान जनक गुणरूप न होने पर भी पूजा आदि अन्य प्रयोजन का साधक ठीक उसी प्रकार होती है जैसे सुप्तनृप के आख्यान की शुश्रूषा नप को उसके ज्ञान के प्रभाव में नपानुग्रहरूप फल का जनक न होने पर भो नृपजनों की प्रीति सम्पादन द्वारा सामान्यप्रयोजन का साधक होती है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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