________________
स्या का टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
[७३
नानिवृत्ताधिकारायां, भवन्तीनामपि तद्पताऽयोगात' इति । 'नच निश्चयत आधगुणावाप्तिरपि निगुणस्यैव, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरक्येन गुणाप्तिकाल एव गुणवत्वसिद्धः, हेतु-फलयोः पूर्वापरभावस्याऽतन्तगाद, भरमशाग एन लोपहिराहेरगपाल, दीर्घक्रियाकालभ्रान्तेयंत्रहारवासनानिमित्तत्वात् इत्यपि वदन्ति ।
[प्रथम सम्यग्दर्शन भी निगुण को प्राप्त नहीं होता ] विषयतृष्णा का निवर्तक ही विज्ञप्ति नामक सम्यग्दर्शनरूप ज्ञान है और जिससे विषयतृष्णा निवृत्त न हो वह मान नहीं, अज्ञान है, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे क्षुधा का निवर्तक हो भक्ष्य और क्षुधा अनिवर्तक अभक्ष्य एवं अशुद्धि का निवर्तक हो स्पर्शनीय और अशुद्धि का अनिवर्तक ही अस्पर्शनोय होता है । तत्त्वचिन्ता, जिसका दूसरा नाम है विविदिषा-तत्वजिज्ञासा, वही दर्शनरूप ज्ञान का कारण है 1 तत्त्वचिन्ता का कारण है सानुबन्धक्षयोपशम, जिसको अध्यात्म शास्त्रीय अन्य संज्ञा है सुख । क्षयोपशम का कारण है तत्त्व विषयक रुचि जिसे श्रद्धा कहा जाता है और ओ चक्षु के निर्मलतादि गुण के जेसी होती है । तस्वरुचिका कारण है चित्त का स्वास्थ्यपरिणाम जिसे धुति कहा जाता है और जो ऐहलौकिक भय का विघटक है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सम्यगदर्शनरूप गुण श्रद्धा आदि गुणों से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होता है, अत: यह कहना प्रसङ्गत है कि प्रथमतः निगुण को हो मोक्षोपाय की प्राप्ति होती है।
'अपुनबन्धकभावरूप योग्यता श्रद्धा आदि विशेष गुण का कारण न होकर श्रद्धा आदि में अनुगतषिशिष्टगुणत्व धर्म से अवच्छिन्न विशिष्ट गुणसामान्य का कारण है अत: अति प्रादि के अभाव में अपुनर्बन्धकयोग्यता से श्रद्धा आदि की उत्पत्ति न होने पर भी अन्वयष्यभिचार नहीं होता। ति धादि के अभाव में अनुपर्धन्धकयोग्यता मात्र से विशिष्टगुणसामान्य की उत्पत्ति न होने से विशिष्टगुणसामान्य के प्रति भी उसकी कारणता में व्यभिचार नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य कार्य की उत्पत्ति में विशेषकार्योत्पादक की अपेक्षा होने से श्रद्धा आदि विशेष कार्य के उत्पादक अति आदि के प्रभाव में विशिष्टगुणसामान्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, मतः अपुनबंधक भाष को, श्रद्धा आदि गुणविशेष के प्रति कारण न मानने से और विशिष्टगुणसामान्य का गुणविशेषकारण की अपेक्षा से ही उत्पादक मानने से विशिष्टगुण के प्रति उसकी कारणता में व्यभिचार को प्रसक्ति नहीं हो सकती। भगवान् गोपेन्द्र ने भी कहा है कि प्रकृति का अधिकार निवृत्त होने पर धृति, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा और विज्ञप्ति तत्वधर्म के जनक होते हैं, किन्तु प्रकृति यदि निवृत्ताधिकार नहीं होती तो ये तत्त्वधर्म के जनक नहीं होते क्योंकि उस स्थिति में ये गुणरूप नहीं होते।
___ यह भी ज्ञातव्य है कि आद्यगुण को प्राप्ति भी निर्गुण को ही नहीं होती क्योंकि क्रियाकाल और निष्ठाकाल अर्थात् गुणप्राप्ति का प्रारम्भ काल और गुणप्राप्ति की सिद्धता के काल में ऐक्य होने से गुणप्राप्ति काल में ही गुणवत्ता की सिद्धि हो जाती है। हेतु और फल का पूढेसरभाव हेतु से १. अपुन बन्धकयोग्यता-उत्कृष्ट कर्मबंध जनक अध्यवमाय की सर्वथा निवृत्ति । २. गोपेन्द्र--एक सांख्य दार्शनिक ।
-
--.
-.-.-...