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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. ७
यदप्युपन्यस्तम्-'अपि च, सर्वमुक्तिसिद्धान्तो नास्ति जैनानाम'-इत्यिादि तदपि न मनोहरम् , अभव्यत्वरूपस्याऽयोग्यत्वस्य भव्या-ऽभव्यत्वशङ्कयैव निवृत्तेः, तस्यास्तद्व्याप्यत्वेन शास्त्रे बोधनाव ; तदुक्तमाचारटीकायाम्-'अभव्यस्य भव्याऽभव्यत्वशङ्काया एवाभावात्' इति । एतेन "सिद्धौ या संसार्यकस्वभावा एव केचिदात्मान इति स्थिते अहमेव यदि तथा स्या तदा मम विपरीतप्रयोजनं परिव्राजकत्व” इति शङ्कया न कश्चित् तदर्थं ब्रह्मचर्यादिदुःखमनुभवेत्" इत्युदयनोक्तं प्रत्युक्तम् । न च दीर्घतरसंसारस्थितिकन्वरूपाऽयोग्यत्त्वशङ्कयाऽपि प्रवृत्तिप्रतिरोधः, विषयसुखवैराग्य-यथाशक्तिप्रवृत्तिभ्यामेव तदभावव्याप्याऽऽसबसिद्धिकत्वनिश्चयात् , तयोरासन्नसिद्धिकत्व व्याप्यत्वेन शास्त्रे वोधात् तथा च श्रुतकेवलिवचनम्
" आसत्रकालभवसिद्धिअस्स जीवस्स लक्खणं इणमो। विसयसुहेसु ण रजइ सवत्थामा उखमइ ।। १ ॥" प माला-२६० ]
फलोत्पत्ति का प्रयोजफ नहीं होता क्योंकि अन्तिमक्षण में ही फलोपहित हेतु का अस्तित्व होता है । क्रियाकाल-किसी वस्तु को जन्म देनेवाली क्रिया-हेतु व्यापार का काल लम्बा होता है, यह बद्धि भ्रमरूप है जो इस प्रकार के व्यवहार से उत्पन्नवासनारूप निमित्त से उत्पन्न होती है, सत्य यह है कि हेतु अपने अन्तिम क्रियाकाल में ही वस्तु का उत्पादक होता है अतः कार्योस्पादक क्रिपा और कार्य जन्म में कालभेद नहीं होता ।
[ भव्यत्व की शंका से योग्यता का निर्णय ] उक्त सन्धर्भ में ही जो यह शङ्का की गई है कि-'जनों को सर्वमुक्ति का सिद्धान्त मान्य न होने से प्रतिव्यक्ति को अपनी मुक्ति में सन्देह होने के कारण मोक्षोपाय के अनुष्ठान में किसी मनुष्य की प्रवृत्ति न होगी'-यह माङ्का भी उचित नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति को अपने सम्बन्ध में भव्यत्व प्रभव्यत्व की शङ्का होगी, उसके भव्यत्वरूप योग्यता की सिद्धि इस शङ्का से हो सम्पन्न हो जायगी, क्योंकि शास्त्र में अभव्यत्व की शङ्काको भव्यत्व का व्याप्य कहा गया है। आचाग की टीका में कहा भी गया है कि अभव्य को 'मैं मध्य हूँ या अमव्य' ऐसी शङ्का हो नहीं होती। कुछ जीव एकमात्र संसारिस्वभाव ही होते हैं इस जैन सिद्धान्त के विरोध में उदयमाचार्य ने जो यह कहा है कि-'इस सिद्धान्त को मानने पर संन्यासग्रहण के लिये उत्सुक व्यक्ति को भी यह शङ्का हो सकती है कि कवाचित मैं भी वही हूँ जिसका सदा संसारी रहना ही स्वभाव है, अतः संन्यासग्रहण से मेरा जोबन सुखी होने की अपेक्षा दुःखमय हो हो सकता है, फलतः ब्रह्मचर्य आदि का क्लेश स्वीकार करने में किसी को भी प्रवृत्ति न हो सकेगी।'-किन्तु उक्त युक्ति से यह कथन भी निरस्त हो जाता है क्योंकि सदा संसारी रहना ही जिसका स्वभाव है उसे उक्त प्रकार को शङ्का ही नहीं हो सकती, वह तो सर्वदा संसार में हो आसक रहता है, उसे ऐसी शङ्का के लिये अवकाश ही कहाँ है ! ?
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१. आसन्नकालभवसिद्धिकस्य जीवस्य लक्षणमिदं तु । विषयसुखेषु न रज्यति सर्वस्थाम्ना उद्यच्छते ॥१॥