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________________ ८४ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ९ लो० ११ * ईसा-विसाय-मय-कोह-माय-लोहेहिं एवमाईहिं । देवा वि सममिभूआ तेसि कत्तो सुहं णाम ॥ ॥ न चेन्द्रोपेन्द्रादीनां पुण्यविपाककालोपस्थितभोगादिनापि निश्चयत्तः सुखमस्ति, व्याधिस्थानीयवृषितेन्द्रयप्रतिकारमात्रत्वात् , मधुलिसखड्गधारालेहनवद् दुःखानुषङ्गित्वात् , दुखकारणजातीयकर्मजन्यत्वाध । सुखाभिमानः खल्विह भत्रबहुमानपुरस्कारी, मूलमेप दुःखनिमितप्रवृत्ते तव्यमित्यतो भाविभद्रेणेति ॥ ११ ॥ [चारगति के दुख का वर्णन-उपदेशमाला ] इसी बात को श्रुतकेवलीश्रीधर्मदासगणीमहाराजने इस प्रकार कहा है कि-"जीव नरक में जिन प्रतिकठोर तपा अतितीक्ष्ण बुःखों का अनुभव करता है, कोटिवर्ष जीवित रहकर भी उनका वर्णन कौन कर सकता है ? (१) नरक में पड़े जीव तीव्रदाह, शाल्मलि के विषमय वन, वैतरणी नदी तपा नानाप्रकार के शतशत प्रहारों से जिन यातनामों को प्राप्त करते हैं ये सब उनके पूर्वकृत पापों का फल है (२) तिर्यगयोनि के जीव कशा अकुश, आरा के प्राधातों तथा वध, बन्ध आदि शतशत मरणसाधनों के भोग न होते, यदि पूर्वजन्म में धर्मनियन्त्रित रहे होते (३) । मनुष्य जीवन में मो अनेक संकट हैं जैसे जीविकार्जन का कष्ट, नगण्य सुख, अनेक प्रकार के उपद्रव, नोचजनों को सेवा, अनिष्टजनों का सहवास (४)। इनके अतिरिक्त मनुष्य जीवन के और भी अनेकों संकट हैं, जैसे जलबास, हत्या, बन्ध, रोग, धनहरण, मरणरूप व्यसन, मन सन्ताप, अपयश, निन्दा दादि (५) । जीव मनुष्ययोनि में जन्म पाकर भी दुष्कृसमूलक चिन्ता, सन्ताप, उत्कट दारिद्रय और रोग से अत्यन्त पीडित होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं (६) देवलोक में देवताओं के शरीर यद्यपि प्रामरणों से भषित होते हैं तथापि उस लोक से उनका पतन भी होता है । इस पसन के भय से उन्हें वारुण दुःख की प्राप्ति होती है (७) । अपरिमित देववै. मष तथा देवलोक से पतन का चिन्तन कर देवताओं का हृदय जो शतखा हो टूट नहीं जाता वह एक प्राश्चर्य ही है (८)। अन्य जीवों के समान देवता भी ईा, विषाद, मद, मान, क्रोध आदि विकारों से भिभूत होते हैं, अतः उन्हें भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? (8) व्याख्याकार कहते हैं कि सामान्य देव आदि को सुख होने की बात तो दूर रही तत्वदृष्टि से देखा जाय तो इन्द्र, उपेन्द्र आदि को भी पुण्य के विपाककाल में उपस्थित भोग प्रादि से सुख होता नहीं, क्योंकि पुण्यफल का सभी भोग इन्द्रिय को अतृप्ति का प्रतीकार मात्र होने से एकप्रकार की ध्याषि ही है। मधुलिप्त तलवार को धार चाटने के समान दु.खप्रद हो है । एवं बुःखकारण के सजातीय कर्म से जन्य होने के कारण दुःखरूप ही है। मनुष्य को इस लोक में जो सुखाभिमान होता है वह के ईर्ष्या-विषाद-मद क्रोध-मान-लोभेरेवमादिभिः । देवा अपि समभिभूतास्तेषां कुतः सुखं नाम ? ।। ६ ।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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