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________________ प्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ८५ मदिन संसारे सवानिमित, तदा पुत्र सद्विश्रान्तिः ? इति चिन्तयमाह । अथवा, प्रागस्य साक्षाद् निर्वदाङ्गचिन्तनमुक्तम् । अथ तु साक्षात् संवेगाङ्ग तदाहमूलम्-सुखाय तु परं मोक्षो जन्मादिक्लेशवर्जितः । भयशक्त्या विनिर्मुको व्यावाधावर्जितः सदा ॥१२॥ सुखाय तु-सुखायैव परं केरलम् , अनाग्रिमपदत्रयेण सांसारिकसुखविपर्ययहेतुगर्भविशेषणत्रयमाइ-जन्माविक्लेशवर्जितः कदाचिदपि जन्मादिक्लेशैरस्पृष्टः, वेनेन्द्रियाद्यभावाद् न तत्प्रतिकारमात्रस्यम् , तथा भयशक्या-आगामिदुःखान्तरोपनिपातबीजभूतया स्वयोग्यतया विनिमुकत्यक्तः, तेन दुःखाननुषङ्गित्वमुक्तम् , तथा सदा-निरन्तरम् , व्यापाधावर्जितः औत्सुक्यरूपात्मस्वभान पाधाकलङ्कविकला, तेन दुःखकारणजातीयकर्माऽजन्यत्त्वमुक्तम् । संसार को अति महत्त्व देने के कारण ही होता है । निष्कर्ष यह है कि संसार को सारी प्रवृत्ति दुःख का कारण है अतः जिसका भद्र-आत्मकल्याण भावी निकट है, उसे सांसारिक प्रवृत्तिमात्र से सदा अस्त रहना चाहिये ॥११॥ [सुख का आविर्भाव एकमात्र मोक्ष में ] व्याख्याकारने १२ वो कारिका की अवतरणिका दो प्रकार से की है। एक यह कि संसार में सुख अब कहीं नहीं है तब जीव को विधाम कहाँ प्राप्त हो सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये यह कारिका रची गई है। दूसरा यह कि पहले निर्वेद के साक्षात् प्रङ्ग के चिन्तन का प्रतिपादन किया गया है और अब संवेग के साक्षात् अङ्ग का प्रतिपादन करने के लिये यह कारिका प्रस्तुत की गई है कारिका का अर्थ इसप्रकार है-सुख का एकमात्र साधन केवल मोक्ष ही है, क्योंकि यह जन्म आदि के क्लेश से रहित है, भयोत्पादिका शक्ति से शून्य है तथा प्रात्मस्वभाव के बाधकवस्तु से सबा मसम्पक्त है । कारिका में मोक्ष का तीन विशेषणों से वर्णन किया गया है। सभी विशेषण सांसारिकसुखविपर्यय के हेतु से गभित हैं। पहला विशेषण है जम्माविक्लेशजित, इसका अर्थ है जन्म आवि के पलेशों से कदापि संस्पष्ट न होनेवाला, इस विशेषण से यह सूचित किया है कि मोक्षावस्था में इनिय प्राधि न होने से मोक्ष इन्द्रिय को अतृप्ति का प्रतीकार मात्र नहीं है। दूसरा विशेषण है भयशक्त्या विनिमुक्त, इसका अर्थ है भयशस्ति से शुन्य । भयशक्ति का अर्थ है जोष की वह योग्यता जो आगामी दुःखान्तर के प्रसव का बीज होती है। मोक्षकाल में जीव में यह नहीं रह जाती । इस विशेषण से यह सूचित किया गया है कि मोक्ष में दुःख का अनुषङ्ग नहीं होता। तीसरा विशेषण है सदा घ्यावाधावजित, इसका अर्थ है आस्मस्वभाव के बाधक औत्सुक्य के कलङ्क से निरन्तरमुक्त इससे यह सूचित किया गया है कि मोक्ष दुःखकारण के सजातीय कर्मों से जन्य नहीं है। आशय यह है कि आत्मा का स्वभाव है प्रोत्सुक्यबाघ(1) से निवृत्त शापात चिदानन्द, यह स्वभाव इन्द्रियसाहित देह आदि अपेक्षाकारण रूप प्रावरण से ठीक उसोप्रकार आच्छादित होता है जैसे चन्द्रमा
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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