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[ शास्त्रवास्तिक ९ श्लो०१
आत्मनो हि गलितोत्सुक्यबाधात्मा शाश्वतश्चिदानन्दः स्वभावोऽस्ति । स च सेन्द्रियदेहाघपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाधते, शीतांशोरिवामृतमयप्रकाशस्वभावोऽभ्रेण, स्वाभाविकान्यथाभृतपरिणतिजननाद , अन्यथाऽऽवारकत्वानुपपत्तेः। सेन्द्रियदेहाद्यपगमे चाऽयत्नसिद्ध एवायमात्मना स्वभाव आविर्भवति, अप्रापगम इव शीतांशोः । उपलभ्यते च संसारदशायामपि समहामि-लेष्दुकामनाय विशिष्टभयानालस्थितम्य मुमुक्षोर्वैराग्यभावनया परमाहादानुभव उपायप्रवृत्तिक्लेशपरिपन्थीति तस्यैव भावनाक्शादुत्तरावस्थामासादयतः परमकाष्ठागतिः संमाव्यते । इति सिद्धो भुक्तावेव सुखविश्रामः, तदुपादानोपशमप्रभवसुखस्यापि तत्त्वतस्तद्रूपत्वात् । न ह्यु पादानोपादेययोरत्यन्तभेदो यौक्तिका तदिदमाहुद्धाः-[प्र. रति-२३८ ]
__ "निर्जितमद-मदनानां वाक-काय-मनोविकाररहितानाम् ।
विनिवृत्तपराशानामिहेव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ १॥” इति । न चैवमन्यदपि सुखं मुक्तिसुखोपादानमस्त्विति कुचोद्यमाशङ्कनीयम्; तृषितसुखस्य तदुपादानत्वे मुक्तावपि उडनुवेधप्रसङ्गात् । अतो भिन्नजातीयमेव तात्विक सुखं मुक्तावृत्करप्राप्तमिति श्रद्धेयम् ॥ १२॥ का अमृतमयप्रकाशरूप स्वभाव मेघ से आच्छावित होता है । इन्द्रियसहित देह प्रावि से 'पारमा की स्वाभाविकपरिणति से अन्यथाभूत परिणति' का जनन होता है क्योंकि उसके बिना मह (इन्द्रियसहित बेहावि)मात्मा का आवारक नहीं हो सकता और जब सेन्द्रिय देह आदि को निवृत्ति होती है तब आवरण की निवृत्ति होती है तब आत्मा का अपना स्वभाव विना प्रयत्न ठीक उसी प्रकार प्रकट होता है अंसे मेघ के हटने पर चन्द्रमा का प्रकाशस्वभाव प्रकट होता है। यह देखा जाता है कि तृण-मणि पाषाणखंड और सुवर्ण में समष्टि रखनेवाले विशिष्ट ध्यानावस्था में विद्यमान मुमुक्षु को बराग्य की भावना से संसारदशा में भी परम मालाब का अनुभव होता है। और यह अनुभव उपायगोचर प्रवृत्ति से होनेवाले क्लेश का विरोधी होता है । ऐसे आह्नाव को प्राप्त व्यक्ति भावना द्वारा जब उसरोत्तर अवस्था में प्रवेश करता है तब उसे परमकाष्टा-सर्वोत्कृष्ट गति-अवस्था प्राप्त होतो है। इसप्रकार सिद्ध है कि जीव को सुखमय विधाम की प्राप्ति मोक्षावस्था में ही होती है ।
उपशमजन्य सुख मुक्ति का उपादान है अतः तत्त्वदृष्टि से वह सुख भुक्तिरूप है क्योंकि उपादान और उपादेय में अत्यन्त भेद युक्तिसंगत नहीं हो सकता। यही बात प्रशमरति में इसप्रकार कही है कि-'जो पुरुष मद और मन को जीत लेते हैं, वाणी, शरीर और मन के विकारों से रहित होते हैं, सभी लौकिक आकाक्षाओं से मुक्त होते हैं एवं शुभ कर्मों के सम्पादन से सुसंस्कृत होते हैं उन्हें इस जन्म में ही मोक्ष सुख का अनुभव होता है।'
यदि यह शंका की जाय कि-'जैसे उपशम सुख मुक्तिसख का उपादान होता है वैसे अन्य सुख को मो मुक्ति का उपावाम होना चाहिये क्योंकि सभी मुखों की सुखरूपता में कोई अन्तर नहीं हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सतृष्ण सुख को मुक्ति का उपायान मानने पर मुक्ति में तृष्णा के भी