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________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० १६ तस्यतस्तत्र चेतःपीडारूपानिष्टाननुवन्धित्वाद् दुष्करत्वमेव नास्तीति साधयन्नाहमूलम्-उपादेयविशेषस्य न यत्सम्यक्प्रसाधनम् । दुनोति चेतोऽनुष्ठानं तदुभावप्रतिवन्धतः ॥ १६ ॥ उपादेयविशेषस्य-सम्यगविदितोत्कृष्टगुणस्य चिन्तामणिरत्नादेः, यत्-यस्मात् सम्यक् प्रसाधनम् अव्यभिचायु पायभूतं रोहणाचलविषमप्रदेशपर्यटनादिकम् अनुष्ठानंकर्म कायोपतापजनकमपि, तावप्रतिवन्धता तस्मिन्नुपादेयविशेषेऽप्रतिबद्धेच्छाजनितादन्तराहादभावप्रतिबन्धात् चेतो न दुनोति, मानससुखसत्त्वे तदनुपमर्दैन मानसदुःखोत्पादाऽयोगाव । न च शारीरदुःखसचे मानससुखमपि विरुद्धम् , श्रमादिवतोऽप्यप्रतिहतफलेच्छस्थान्तहिरेकदेव सुख-दुखानुभवदर्शनात् । न चकदाभययोगक्रियाविरहा, अभिन्न विषये प्रयाणामपि योगाना क्रियायोगपधस्य दृष्टत्वात् , इष्टत्वाच, भनिन्कश्रुतप्रामाण्यात् । न च तदा विषयाभावादेव सुखा मनुष्य का तीवद्वष नहीं होता अत: उन से इण्टोपाय को प्राप्त करने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं होता, क्योंकि प्रवृत्ति का प्रतिरोष बलवान् अनिष्ट को साधनता के ज्ञान से होता है और यह ज्ञान इप्टोपाय के नान्तरीयक अनिष्ट साधनों में नहीं होता ॥१५॥ १६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि चित्तक्लेशरूप अनिष्ट का जनक न होने से परीषह सहन आदि वस्तुतः वृष्कर ही नहीं है । कारिका का प्रयं इस प्रकार है जो कम विशिष्ट उपादेय यस्तु का अव्यभिचरितसाधन होता है वह उपादेय वस्तु को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा से होनेवाले मनोगत आनन्दात्मक भावरूप प्रतिबन्धक का सन्निधान होने से मनःक्लेश का जनक नहीं होता । आशय यह है कि चिन्तामणिरत्न, जिसका उत्कृष्ट गुण सम्यक प्रकार से ज्ञात है-विशिष्ट उपादेय माना जाता है। उसकी प्राप्ति के लिये रोहणाचल के गम प्रदेशों में उसका अन्वेषण करना पड़ता है। रत्न का अन्वेषणकार्य शरीर की दृष्टि से अत्यन्त कष्टप्रद है किन्त इस कार्य से मन को कोई पीडा नहीं होती क्योकि चिन्तामणि को प्राप्त करने की प्रब से एक विलक्षण मनःसुख उत्पन्न होता है । यह सुख हो उक्त कार्य से मनःपीडा की उत्पत्ति का विघटन कर देता है। क्योंकि मानस सुख को अभिमूत किये बिना मानसपीडा का उदय नहीं होता । 'शारीरिक बु ख के समय में मानससुख का अस्तित्व दुर्घट है' ऐसी शका नहीं की जा सकती क्योंकि श्रमिफ को श्रमजन्य दुःख और श्रम से प्राप्य अभीष्ट फल की इच्छा से उद्भूत सुख, दोनों का अनुभव एकसाथ होता है। एककाल में वो योगों की, काययोग और मनोयोग की क्रिया नहीं होती' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि एकविषय में तीनों योगों की क्रिया का योगपद्य ‘एककालिकत्व' दृष्ट है और भङ्गिक' श्रुत. प्रामाण्य के अनुसार इष्ट मो है। १. भंगिकश्रुतप्रामाण्य-जिस श्रुत के अध्ययन में अनेक भंगो की गिनती करनी पड़ती है उस वक्त मनवचन और काया तोनों योग से भिन्न भिन्न क्रिया का अनुभव प्रमाणभूत माना जाता है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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