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स्या क० टोका एक हिन्दीविवेचन ]
इत्यमेवाज्ञाश्रद्धया तीवसंवेगादभ्यासाच क्लिष्टकर्मविगमात् तीव्रानुष्ठानयोग्यो भवति । अत एव प्रायः परिशीलितश्रावकातिमादिक्रमस्यैत्र सदा यतिधर्मेऽधिकारः, विशिष्य तु दुःपमायामित्यन्यत्रोक्तमित्यभिप्रेत्याहमृलम्-नुष्कर क्षुद्र सत्त्वानामनुष्ठानं करोत्यसौ।
मुक्ती दृढानुरागत्वात्कामोव पनितान्तरे ॥ १५ ॥ असौ विशुद्धात्मा क्षुद्रसरवानां संसाराभिनन्दिनामपरमार्थदर्शिनां धर्मपराङ्मुखाना क्लीवानो कापुरुषाणाम् दुष्करम्-ऋतु मशक्यम् अनुष्ठानं=पूर्णाहिंसादिपालनाय परीपहादिजयरूप, विशिष्टनिर्जरायै भिक्षप्रतिमाद्यभिग्रहरूपं वा करोति । कुतः १ इत्याह मुक्ती दृढानुरागत्वात-पारमार्थिकाभिलाषभावान; अनीवस्त्वभिलाष आलस्याद्यपहतचित्तानां परमार्थतोऽभिलाष एवं न, अन्यथाप्रवृत्त्यादिसिद्धेरिति विभावनीयम् । निदर्शनं आह-कामीव तीवकामाविष्ट इव घनितान्तरे-अभिलषिततरुणीविशेषे । यथा हिं वनितान्तरेऽनुरक्तस्तदाप्तये प्रवर्तमानः शीतादि न गणयति तथा मुक्तावनुरक्तोऽपि तदाप्तये प्रवर्तमानो न तद् गणयति, उपायानुषङ्गिशैत्यादौ वलवद्वेषाभावेन बलवदमिष्टानुबन्धित्वज्ञानकुतप्रवृत्तिप्रतिघाताऽभावादिति निगर्वः ॥ १५ ॥
इस रीति से ही शास्त्राज्ञा पर श्रद्धा करने से, तीवसंवेग से और अभ्यास से क्लिष्ट कर्म का क्षय होने पर मनुष्य उग्रअनुष्ठान के योग्य होता है । इसीलिये यतिधर्म में विशेष कर इस दुःषमा काल में प्रायः उसो मनुष्य को यतिधर्म के पालन का अधिकार होता है जो श्रावक के प्रतिमादि कम [विशिस्टप्रकार के यम-नियमों का सम्पावन कर लेता है यह बात अन्यत्र कही गई है। १५ बी कारिका उसी अभिप्राय से कही गयी है, उसका अर्थ इसप्रकार है- जैसे कामी पुरुष किसी मई अनिता में अतिशय अनुरक्त होने पर उसके लिये अनेक दुष्कर कार्य करता है बसे विशुद्धचिसवाला पुरुष मोक्ष में दृढानुराग होने से क्षवजीवों द्वारा असाध्य कर्मों का अनुष्ठान करता है। क्षुद्र जीव ये हैं जो संसार का ही अभिनन्दन करते हैं, जो परमार्थदी नहीं होते, जो धर्मविमुख होते हैं. क्लीब और कापुरुष होते हैं । पूर्ण अहिंसा आदि का पालन करने के लिये परीषहों का जय, विशिष्टकोटि को निर्जरा को प्राप्ति के लिये मिक्ष प्रतिमा प्रादि के अभिग्रह इन क्षद जोवों के लिये अत्यन्त दुष्कर होते हैं। निर्मलमना मानव इन कर्मों को बड़े उत्साह से करता है, क्योंकि इन कर्मों से साध्य मोक्ष की उसे वास्तविक अभिलाषा होती है । जिन का बिस आलस्य आदि से आक्रान्त होता है उनका अतीव अभिलाष. वास्तव में अभिलाष ही नहीं है, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति इन दृष्करकर्मों में न होकर अन्यथा होती है। तीन काम से प्राविष्ट पुरुष जिस अपूर्व सरुणी में प्रेमासक्त होता है उसको पाने के प्रयत्न में जैसे यह शीत जष्ण प्रादि से होने वाले क्लेश की चिन्ता नहीं करता वैसे मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल इच्छा से युक्त पुरुष भी उसे प्राप्त करने के प्रयत्न में शोत उष्ण आदि से सम्भावित दुःख को चिन्ता नहीं करता। शोत, उग्ण प्राधि जिन टु खसाधनों का सन्निधान इष्ट प्राप्ति के उपायों का मियतसहमावो होता है उनमें