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________________ ४८] [ शास्त्रवार्ता स्तक ६ श्लो० १४ क्षिष्वहिंसादिषु तदुपायेषु प्रवर्तते, नित्य-निरन्तरम् , क्षुधितस्य भोजनेच्छाया इव मुमुक्षोर्मोक्षेच्छाया अविच्छेदेन तदुत्साहस्य शाश्वतत्वात् अबोचाम च-सामाचारीपकरणे "खुहिअस्स जहा खणमवि विच्छिज्जइ णेव भोजणे इच्छा । __ एवं मोक्खट्ठीणं छिज्जइ इच्छा ण कन्जम्मि। १।" विशुद्धात्मा विवेकजलगलितानादरमलत्वात् यथागमम् आगमोक्तोत्सर्गाऽयवादादियोग्यधृतिशक्रयाद्यनतिक्रमेण । व्यवस्थित खन्वागमे-आतुरादेरपि पीडाद्यनुभवानिमित्तसंक्लेशाभावे आपश्यकयोगाऽपरिहाणौ च चिकित्साऽकरणादि, अन्यथा तु पुष्टालम्बनेन तत्करणादि, स्फोरयतोऽपि च मनोधृतिवलं कदाचिदत्यन्तभग्नकायशक्तिकस्य सतो यथाभणिताचरणसीदनेऽपि मुक्तकूटचर्यस्य शुद्धत्वमेवेति । यस्त्वपरिशीलितगुरुकुलबासोऽनालोच्यैवागमं स्वशक्तिमतिक्रम्यैव व्यापतो भवति स्वकृत्य साध्ये महति कार्ये, स तु संक्लेशोदयादविधिना शरीर पातयित्वाऽनेकभवेषु तदनुबन्धी प्राप्नुयादिति । स यथाक्रमं शक्त्याद्यनतिक्रम्येष प्रबतेत ॥ १४ ॥ को मोक्ष की इच्छा सहा बनी रहती है अत एव मोक्षोपाय को आत्मसात् करने में वह सदा सोत्साह रहता है। व्याख्याकारने स्वकृत समाचारीप्रकरण में भी यह कहा है कि जैसे भूखे आवमी को भोजन की इच्छा क्षणभर भी विच्छिन्न नहीं होती वैसे मोक्षार्थी को मोक्षोपाय के अर्जन को हाछा मी कभी शान्त नहीं होती। विवेक जल से जिस के चित्त का अनादर मल घुल जाता है वह व्यक्ति आगम में वणित उत्सर्ग अपवाद आदि तथा योग्य तिशक्ति प्रादि के अनुसार मोक्षोपाय की आराधना करने का यत्न करता है । आगम में यह व्यवस्था की गई है कि पीडा आदि के अनुमय में तो राग देषादि संक्लेश के न रहते पर एवं आवश्यक योगों को हानि होने पर निमार प्रादि को भी चिकित्सा कराने की कोई जहर नहीं होती। किन्तु अन्यस्थिति में पुष्टकारण का आलम्बन कर चिकित्सा करणीय होती है। इसीप्रकार यह भी व्यवस्था की गई है कि मन में धैर्य का बल रहने पर भी शरीरशक्ति का अत्यन्त क्षय होने की दशा में शास्त्रोक्त कम का सम्पावमन हो सके सब भी कपटाचार का परित्याग कर देने मात्र से शुद्धता होती है। किन्तु जिसे गुरुकुल के निवास का सौभाग्य नहीं प्राप्त रहता वह आगम का आलोचन किये बिना ही अपनी शक्ति का अतिक्रमण कर अपने प्रयत्न से असाध्यकार्य में व्याप्त होता है। अतः वह संक्लेशोट्यवश अविधि से शरीरस्याग कर अनेक जन्म तक उसकी परम्परा चलाने का वोष प्राप्त करता है। इसलिए उचित यह है कि शक्ति का अतिक्रमण न कर क्रम से हो मोक्षसाधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाय ।। १४ ।। ---- - * क्षुधितस्य यथा क्षणमपि विच्छिद्यते नैव भोजने इच्छा । एवं ममाथिनां छिद्यत इच्छा न कार्ये ।। १ ।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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