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________________ <] [ शात्रवार्ता १०/४ बुद्ध आदि वेदज्ञ नहीं है अत एव वेद द्वारा उन का उपदेश संभव नहीं है:उन्हों ने केवल व्यामोह से ही उपदेश किया है | १० || वजयी के जननेवालों में मनु आदि प्रधान माने जाते हैं, उन के ग्रन्थ वेदश्य के शाम पर आश्रित है, उन के सारे वचन वेदमूलक हैं ॥। ११ ॥ फलितमाह-प्रमाणपथकाऽवृत्तेः = पञ्चानामपि प्रमाणानां विधिप्राहिणामप्रवृत्तेः तत्र = सर्वज्ञे, अभावप्रमाणता=अभावप्रमाणात् सर्वज्ञाभावनिश्चय एवेति भावः । उक्तं च- (लो. वा. अभाव.) " प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्ता ववोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ॥ १ ॥ " इति । न चाभावस्य पृथक्प्रमाणत्वमसिद्धम्, अभावग्राहिणस्तस्य पार्थक्यावश्यकत्वात् । न हीन्द्रि येणाभावज्ञानं जनयितुं शक्यम्, भावांशेनैवेन्द्रियस्य संयोगात् । न च धर्म्यभेदाद् भावांशेन सहा भाषाशास्याभेदे सतीन्द्रियसंयोगोपपत्तिः, अभिन्ने धर्मिणि रूप-रसयोरिव भावा-भावांशयो - रन्योन्यं भेदात् । तदुक्तम्- ( श्लो. वा. अभाव ० १८ - १९ ) "न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ॥१॥ ननु भावादभिनत्वात् संप्रयोगोऽस्ति तेन च । न अत्यन्तमभेदोऽस्ति रूपादिवदिहापि नः ॥ २ ॥ * [ सर्वज्ञ अभावप्रमाण का विषय ] विवेचन :- प्रस्तुत चौथी कारिका के उत्तरार्ध में सर्वज्ञविषयक पूर्वोक्त विचारों का फलितार्थ बताया गया है जिस का अभिप्राय यह है कि यतः सर्वक्ष में भाव पदार्थों के ग्राहक प्रत्यक्ष आदि पांचों प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती अतः सर्वश की सिद्धि न होकर अभावप्रमाण से सर्वक्ष का अभाव ही सिद्ध होता है। कहा भी गया है कि भाषात्मक वस्तु की सत्ता के अघोषक प्रत्यक्ष आदि पाँचों प्रमाण जिस वस्तु में नहीं प्रवृत्त होते उस में माण की प्रवृत्ति से उस वस्तु के अभाव की सिद्धि होती है । [ अभावग्राहक स्वतंत्र प्रमाण की सिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि 'अभाव नामक पृथक् प्रमाण असिद्ध है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाय के ग्रहण के लिये अभाव प्रमाण को पृथक मानना आवश्यक है, क्योंकि इन्द्रिय से अभाव का बोध नहीं हो सकता, यतः इन्द्रिय द्वारा अपने सम्बद्ध अर्थ का ही बोध होता है और उस का सम्बन्ध भावाश के ही साथ होता है। यदि यह कहा जाय कि- 'धर्म और धर्मी में अभेद होने से धर्मी के भागांश के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर उस के अभाव के साथ भी इन्द्रिय का सम्बन्ध हो सकता है क्योंकि अभा वांश भावांश से अभिधर्मी से अभिन्न होने के कारण भावां से भी अभिन्न होता है'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि धर्मी के अभिन्न होने पर भी जैसे उन के रूप रस आदि धर्मों में भेद होता है उसीप्रकार अभिन्न धर्मी के भावांश और अभावांश धर्मों में भी परस्पर भेद होता हैं। कहा भी गया है कि 'भूतले घटो नास्ति भृतल में घड़ा नहीं है इसप्रकार की बुद्धि इन्द्रिय से नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि योग्य होने से भायांश के साथ ही इन्द्रिय का लम्ब होता हैं ॥ १ ॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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