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स्या, क. टीका-हिन्धी विधेचन ]
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एतेन यदुक्तं कुमारिलेन- [दृष्टव्य, त. सं. ९०९ तः ९१३]
"नन्वन्यापोहकृच्छन्दो युप्मत्पक्षे तु वर्णितः । निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते ॥ १ ॥ किन्तु गोर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः । विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते ॥२॥ यदि गौरित्ययं शब्दः समोऽन्यनिवर्तने । जनको गवि गोबुद्धेम॒भ्यतामपरो ध्वनिः ॥ ३ ॥ ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् । अपवाद-विविज्ञानं फलमेकस्य वः कथम् ॥ ४ ॥ प्रागगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्राविणो भवेत् । येनाऽगोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः ॥ ५॥ इति ।
तदपास्तम् , प्रागर्थप्रतिविम्धरूपविध्यर्थस्यैवावसायात् ; अनन्तरं च सामथ्यतो निषेधप्रतीतिः, एकस्यापि रात्रिभोजननिषेधार्थापकदिवाभोजनबत् ऋमिक्रविधि-निषेधज्ञानद्वयफलकत्वाऽविरोधात् ।
[कुमारिल के आक्षेप का प्रतिकार] मौत सहरा गाव नक रूप से प्रतिपादन के फलस्वरूप, प्रकृत विषय में कुमारिल द्वारा उद्भावित आक्षेप का भी निरसन हो जाता है। कुमारिल का आक्षेप इस प्रकार है
"बौद्ध मत में शब्द को अन्यापोह-अन्यव्यावृत्ति का बोधक कहा गया है किन्तु इस में एक बड़ी त्रुटि है वह यह कि शब्द द्वारा होनेवाले प्रतिभाल में अभ्यध्यावृत्ति रूप निषेधमात्र का बोध नहीं होता । किन्तु गाय-गधय-हाथी-वृक्ष इत्यादि शब्द से 'गाय-गषय-हाथी -वृक्ष' इस प्रकार भावात्मक रूप में बोध होता है। अनुभव भी यह है कि गो आदि शब्द द्वारा केवल निषेधरूप में अर्थ की प्रतीति नहीं होती किन्तु, भाषरूप में अर्थ की प्रतीति होती है जो बौद्ध मत में उपपन्न नहीं होती। यदि गो आदि शब्द से अन्यध्यावृत्तिरूप अर्थ का बोध होगा तो गोत्व आदि रूप से गो मादि के अनुभवसिद्ध बोध के लिए अन्य शब्द की अपेक्षा होगी जबकि निर्विवाद रूप से अन्य शब्द के बिना ही गो आदि शब्द से ही भाष रूप से भी गो का बोध सर्थमान्य है। दूसरी बात यह है कि शब्द का फल ज्ञान है, अतः गो आदि शब्द से कोई एक शान होने से शब्दप्रयोग की सफलता हो जाती है, अतः दो शान को उत्पन्न करने का कोई औचित्य न होने से उत्त से दो बोध जैसे, अपयाद-अन्यव्यावृत्ति का और विधि-गोआकारता का बोध कैसे सम्भव हो सकता है ? तथा, 'गो' शब्द से मुख्यतया अगोनिवृशि का बोध मानने पर; गोशष्द के श्रोता को पहले गोभिन्न वस्तु का बोध होना चाहिए, क्योंकि बौद्धमत में तो गोभिन्न के निषेध के लिए ही गोशब्दप्रयोग होता है।
कुमारिल का उक्त भाक्षेप सर्वथा निर्जीव है, क्योंकि गो आदि शब्द से पहले गौः भादि भावात्मक आकार में अर्थ प्रतिबिम्ब का बोध होता है और उसके अनन्तर अगो मादि में श्रोता की प्रवृत्ति न होकर गौ आदि में ही प्रवृत्ति होने के सामर्थ्य से यह मानना आवश्यक होता है कि अर्थ प्रतिविम्ब के बोध के बाद अन्यव्यावृति रूप से भी उसका बोध हो जाता है। एक शन्द से पक काल में बोधवय की उत्पत्ति अमान्य होने पर भी कम से अर्थद्वय के दो बोध मानने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि "पीनो देवदत्तः रात्री न भुरुपते- स्थूल शरीर वाला देवदत्त रात्रि में भोजन नहीं करतास वाक्य से पहले देवदत के रात्रि भोजन के निषेध का ज्ञान होता है और बाद में उसकी शारीरिक स्थूलता के आधार पर उसके दिनगत भोजन का ज्ञान होता है। . .