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[ शास्त्रार्त्ता० स्त० ११ / ३
यदपि तेनैवोक्तम्
""अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाक्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्ववेव तैरुक्तम् गोऽपोहगिरा स्फुटम् ॥ १॥ . भावान्तरात्मक भावो येन सर्वे व्यवस्थितः । तत्राश्वादिनिवृतात्मा भावः क इति कथ्यताम् ॥२॥ नेष्टोऽसाधारणस्तावद् विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शाबलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥ ३ ॥ तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद गोत्वादन्यच्च नास्ति तत्" ॥४॥
इति तदपि प्रत्युक्तम्, बाह्यरूपतयाऽध्यस्तस्य बुद्ध्याकारस्यैव सर्वत्र शाबलेयादौ 'गौ गौः ' इति समानरूपतयाऽवभासनात्, तत्रैव भ्रान्तप्रतिपत्तवशेन सामान्यव्यवहारात्, मुख्यसामान्यसाधर्म्यादर्शनेऽप्यन्तरुपलवात् द्विचन्द्रज्ञानवत् तत्र सामान्यभ्रान्त्युपपत्तेः, बुद्धेख्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् । परमार्थतोऽसामान्यरूपवत्त्वेन तस्याऽपोहवाच्यतायां सिद्धसाधनानवकाशात् ।
[ कुमारिल के अन्य आक्षेप का प्रतिकार ]
कुमारिल ने अन्यापोहवादी बौद्ध के विपरीत एक और भी बात कही है यह यह कि - "बौद्धों ने जो अगोनिवृत्ति रूप सामान्य को गो शब्द का वाध्य कहा है, निश्चय ही उन्होंने 'अगोनिवृत्ति' शब्द से वस्तुभूत भावात्मक गोत्व को ही अभिहित किया है। अपोहवादी बौद्ध को इस प्रश्न का भी उत्तर देना है कि प्रत्येक अभाव भावान्तर रूप अर्थात् अन्य भाव स्वरूप होता है और इसी के आधार पर प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि की सारी व्यवस्था होती है, इस स्थिति में वह कौनसा अश्वादि से व्यावहै जिसमें शब्द से श्रोता की प्रवृत्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-' अन्यध्यावृत्तभाव असाधारण है जो विकल्प निर्मुक्त विशेषरूप है तो यह समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर चित्र, धवल आदि को सामान्यरूपता नहीं प्राप्त हो सकती, जबकि अवित्रव्यावृत्त चित्र, अधवलव्यावृत्त धवल आदि को सामान्य गोरुपता लोकप्रसिद्ध है। अतः यह मानना होगा कि चित्र, धवल आदि सभी व्यक्तियों में कोई एक अनुगत रूप है जो उन सभी में गोसामाभ्य बुद्धि को उत्पन्न करता है और जो भी रूप स्वीकार किया जायगा वह वस्तुभूत भावात्मक गोत्व से भिन्न नहीं हो सकता । "
कुमारिल का उक्त आक्षेप भी निष्प्राण है क्योंकि चित्र, धवल आदि गो व्यक्तियों में 'गौ: गौः' इस प्रकार जो सामान्य रूपता की प्रतीति होती है उसका निमित्त कोई बाद्यसामान्य नहीं है, किन्तु बुद्धि का आकार ही है । उसी में वायरूपता का भ्रम है। इस भ्रम के अवबोध से ही दुध्याकार को बाह्य सामान्य रूप से व्यवहूत किया जाता है ।
विज्ञानवाद में बाह्ययस्तु का अभाव होने से मुख्य सामान्यात्मक साधर्म्य का दर्शन न होने पर भी अन्तर्वासना के प्रभाव से सामान्यरूपता के भ्रम की उपपत्ति ठीक उसी प्रकार हो सकती है जैसे अर्ध निमीलित नेत्र से चन्द्रमा की ओर देखने पर दो घन्द्र का भ्रम होने से वास्तव में दो चन्द्र न होने पर भी 'चन्द्रः चन्द्र:' इस प्रकार सामान्यरूपता की प्रतीति होती है । विभिन्न व्यक्तियों में सामान्यरूपता की प्रतीति का भ्रम होने का यह भी कारण है कि विभिन्न अर्थव्यक्तियाँ बुदुद्ध्याकार होने पर भी उनका अनुगम बुद्धि से अभिन्न रूप में नहीं होता किन्तु बालरूप में प्रतीयमान बुध्याकाश्मक सामान्य के माध्य रूप में होता है
१ लोकवान्तिकेऽपोहवादे १-२-३-१० तत्वसंग्रहे ९१४ : ९१७ लोक
दृष्टव्याः ।