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________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २४१ यदपि ' भ्रान्तस्य शब्दार्थत्वे बाह्यार्थानपेक्षत्वं स्यात्' इत्युच्यते तदपि न, पारम्पर्येण वस्तुषिद्धस्य भ्रान्तस्यापि विकल्पस्य मणिप्रभार्या मणिबुद्धिवद् बाखार्थानपेक्षत्वासिद्धेः । यदपि 'अपोहस्य नि:स्वभावत्वात् अरूपस्य परस्परतो केदाभावात् वृक्ष - रूपादिशब्दवदभिन्नसामान्यवचनानां गवादिपदानाम्, विशेषवचनानां च शाचलेयादिपदानां पर्यायतापत्ति: ' इति तदपि न, भेदवदभेदस्याप्य मावेनाभिन्नार्थाभावे तत्र पर्यायत्वाऽऽसञ्जनस्य कर्तुमशक्यत्वात्, निर्बीजकल्पनायाश्चाव्यवस्थितत्वात् तदुक्तम् - [ तत्त्वसंग्रहे - १०३१-३२ ] 'रूपाभावेऽपि चैकत्वं कल्पनानिर्मितं यथा । विमेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः १ ॥ १ ॥ भावतस्तु न पर्यायान पर्यायस्य वाचकाः । नोकं वाच्यमेतेषामनेकं वेति वर्णितम् ॥ २ ॥ इति " , रूप में प्रतीत होने वाले बुद्ध्यात्मक सामान्य को अपोह शब्द से वाच्य मानने में सिद्ध साधन १ की शङ्का नहीं हो सकती क्योंकि उक्त सामान्य के आश्रय रूप में प्रतीति होने वाले व्यक्तियों में पारमार्थिक सामान्य की आधारता नहीं होती । यदि पारमार्थिक सामान्य की आधारता होती तो उसी से विभिन्न व्यक्तियों की समानाकार प्रतीति होने से उस के लिए बाह्यतया आान्य बुद्दध्यात्मक सामान्य की कल्पना करने में सिद्धसाधन का प्रसङ्ग हो सकता था, किन्तु बैसा न होने से उसकी प्रक्ति का कोई अवसर नहीं होता । [ बाह्यार्थ अप्राप्ति की आपत्ति का प्रतिकार ] उक्त सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि 'भ्रान्त-कल्पित सामान्य को शब्दार्थ मानने पर बाह्यार्थ की अपेक्षा न होगी अर्थात् शब्द से कल्पित सामान्य रूप से बोध होने पर उस के द्वारा बोधकर्त्ता को बाह्यअर्थ की प्राप्ति न होगी वह भी ठीक नहीं है क्योंकि भ्रान्त विकल्प भी परम्परया वस्तु से सम्बद्ध होता है अतः उस में बाह्यार्थ निरपेक्षता बाह्यार्थ की अप्रापकता नहीं हो सकती, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि मणि की प्रभा में मणि की भ्रमात्मक बुद्धि भी प्रभार के मूल उद्गमस्थानभूत मणि की प्रापक होती है । प्रस्तुत सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि अपोह का कोई स्वभाव नहीं होता, अतः अपोह मानने पर भी अपोहनीय व्यक्ति स्वरूपहीन होंगी, फलतः उन में कोई भेद नहीं होगा । उसके परिणाम स्वरूप अभिन्न सामान्य के बाचक गो आदि पर और अभिन्न विशेष के वाचक शाबलेय-चित्र धवल आदि पदों में ठीक उसी प्रकार पर्यायता की आपत्ति होगी जैसे वृक्ष और उसके रूप में अभिन्नता के पक्ष में वृक्ष, वृक्षरूप आदि शब्दों में पर्यायता होती है तो यह भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि भेद के समान ही अभेद भी वास्तविक नहीं है। अतः अभिन्न अर्थ का अस्तित्व न होने से उक्त सामान्यरूप विशेष शब्दों में एकार्थता न हो सकने से पर्यायता की आपत्ति नहीं दी जा सकती। और यदि अकारण कोई कल्पना की जायगी सो उसका कोई पर्यवसान ही नहीं होगा, जैसा कि तत्त्रसंग्रह में कहा आश्रय से भिन्नरूप का अस्तित्व न होने पर भी आश्रय और उसके है उसी प्रकार वा व्यक्तिरूप भेद भी कल्पित है, वास्तविक नहीं है। सामान्यवाची और विशेषवाची गो एवं चित्र आदि पदों में पर्यायता की आपत्ति कैसे हो ३१ गया है कि ' वृक्ष आदि रूप में काल्पनिक एकत्व फिर ऐसी स्थिति में
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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