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________________ २३८ ] [ शासवार्ता स्त० ११/८ सत्यपि भेदेऽधिकृतकाकारपरामर्शमन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम् , तदनुभवचलेन यनुत्पन्नं विकल्पज्ञानम् , तत्र यदर्थाकारतयाऽर्थप्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभाति तत्रान्यापोह इति व्यपदेशः, अन्यव्यावृत्तवस्तुमाप्तिहेतुत्वादिनोपचारात् । अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तद्वयषदेशभाक् । " प्रसज्यप्रतिषेधस्तु 'गौरगौनं भवत्ययम् ' । इति विस्पष्ट एयायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥ " [त० सं० १०१०] । सत्रार्थप्रतिविम्बात्माऽपोहः शब्दजन्यत्वात् साक्षात् शब्दवाच्यः । शब्दाऽर्थयोः कार्य-कारणभाव एव च वाच्यवाचक(भायः) तदुक्तम्--" विकल्पयोनयः शब्दाः "....इत्यादि । अपोहद्वयं च बाह्याांध्यवसायिविकल्पप्रतिबिम्बोसोल सामगया दुजारा दानवाच्यमुच्यते । तदुक्तम्-" न तदारमा परात्मेति संपन्धे सति बस्तुभिः । व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः ॥ [त० सं०. १०१३] ॥ इति । हैं । इस प्रकार बाथसत्रूप में अवास्तविक और बुद्धिरूप में वास्तविक इस गोत्व सामान्य के अनुभव के बल से अपने में जो 'गौः' इस प्रकार एक विकल्पशान उत्पन्न होता है इस शान में जो अर्थ के आकार रूप में अर्थ का प्रतिविम्ब भासता है जो कि ज्ञान से अभिन्न होता है वही उपचार से अन्यापोह शब्द से व्यपदिष्ट होता है क्योंकि उसी से अन्यथ्यावृत्त वस्तु की प्राप्ति होती है। पर्युदासरूप अपोह के दूसरे भेद को स्पष्ट करते हुए ध्याख्याकार ने कहा है कि स्वलक्षणभूत अर्थ जो वास्तव है वह वास्तव में अन्यव्यावृत्त होने के कारण अपोह शब्द का मुख्य अर्थ है। अपोह के प्रसज्यप्रतिषेधरुप भेद को स्पष्ट करते हुए तत्त्रसंग्रहमें कहा है कि-'गौः अयम् अगौः न भवति-यह गौ है अगी-अश्व आदि नहीं है। इस प्रतीति में स्पष्टरूप से भासनेवाली अगोव्यावृत्ति ही प्रसज्यप्रतिषेधात्मक अपोह है ।इन में पर्युदास का प्रथमभेद-अर्थप्रतिविम्बस्यरूप अपोह गो शब्द से उत्पन्न होने के कारण गो शब्द का साक्षात् वाच्य है, क्योंकि बौद्ध मन में शध्द और अर्थ का कार्य-कारणभाव ही वाच्यवाचकभाव है। शब्द कारण होने से वाचक है और प्रतिबिम्बभृत अर्थ कार्य होने के कारण वाच्य है। इसी बात को वाक्यपदीय में भर्तहरि ने " विकल्पयोनयः शब्दाः"-'शब्द विकल्प के होते हैं। कह कर संकलित किया है। अर्थप्रतिबिम्ब को साक्षात् शब्दवाच्य कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शेष उक्त दो प्रकार के अपोह, अर्थात अभ्यध्यावत्त स्वलक्षण अस्सहप अपोह तथा, प्रसज्यप्रतिषेधात्मक अपोह ये दोनों उपचार से अपोह शब्द के वाच्य अर्थ हैं क्योंकि शब्द से वायार्थ को ग्रहण करने वाले विकल्पक प्रतिबिम्ब के बाद उस की उपपादकतारूप सामय के बल पर उन का भान होता है। कहने का आशय यह है कि पर्युदास रूप अपोह का द्वितीय भेद तथा अन्यव्यावृत्तिरूप प्रसन्यप्रतिषेध के आधार पर ही शब्द से अर्थप्रतिविम्बरूप यानी बाधार्थ को अध्यक्षित करने वाले विकल्पशाम-का उदय होता है इसलिए शब्दजन्य विकल्प के जन्म के बाद उस में अथवा उस के विषयभूत अर्थ के उपपादकरूप में उक्त भपोहों का ज्ञान होता है। ___ यही बात तत्वसंग्रह में इस प्रकार कही गई है कि- अश्वत्मक अर्थ गर्दभादिस्वभावात्मक नहीं है। यहाँ अश्वप्रतिबिम्ब के साथ तद विमाभावि होनेसे गर्दभादिष्यावृत्तिरूप अपोह भासित होता है। और अश्चादि के साथ परम्परया अश्वप्रतिविम्ब का शब्दद्वारा सम्बन्ध होने से गईभादिष्यावृत्त अश्वस्वलक्षणरूप व्यावृस वस्तु का भी बोध उपचार से होता है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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