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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
“यदा तुरगः सत्स्वप्यारम्भ-विभूषणेवन भिषक्तः।
तद्वदुपग्रहदानपि न सङ्गमुपयाति निम्रन्थः ॥ १ ॥" इति [अ० २० १४१] अवश्यं चैतदम्युपेयं परेणापि, अन्यथा शुक्लध्यानाग्निना कर्मेन्धनं भस्मसात् कुर्वतः परित्यक्ताशेपसङ्गस्य केनचित तदुपसर्गकरणबुद्धया मक्त्या वा वस्त्रादिनाऽऽवृतशरीरस्य परद्रव्यरतिप्रतियन्धान स्वात्ममात्रप्रतियन्धो न स्यात् ।
___ अथ स्वयमात्तेन वस्त्रादिना परद्रव्यरतिनान्यथेति चेत् ? एतत् स्वयमादानस्य सृष्णानान्तरीयकत्वे शोभते, निरस्तं चैतदधस्तात् । अबोचाम चान्यत्र
[ वस्त्रादिसंनिशन में आत्मरति अबाधित ] दिगम्बरों की ओर से जो यह कहा गया कि-'वस्त्रादि अनात्म तव्य में जब यति को प्रषिक रसि होगी तो स्वात्मा मात्र में उसका प्रतिबन्ध-उसकी निष्ठा न होने से उसके श्रमणधर्म का विकास न होगा-वह कथन भी भयुक्त है, क्योंकि अनात्म द्रव्य के सन्निधामरूप रति से यदि धमणधर्म को क्षति मानो जायगी तो वैसी रति तो मुक्ति में भी समाप्त नहीं होती प्रतः श्रमणधर्म की पूर्णसमृद्धि से सम्पन्न होनेवाली मुक्ति हो उपपन्न न हो सकेगी। अतः अमिष्वन यानी आसक्तिरूप रति को हो श्रमणधर्म की समडि का बाधक मानना होगा और ऐसी रति धर्म के उपकरण वस्त्रादि में नहीं होती प्रतः वस्त्रग्रहण से यति के श्रमणधर्म का विकास बाषित नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि'वस्त्राधिका सतत सनिधान होने से उसमें यति की अभिष्वनरूपा रति भी हो जाना सम्भावित है तो यह बात तो शरीर में भी हो सकती है, अतः शरीर भी धर्मोपकरण न होने से अनुपादेय होने लगेगा। यदि यह कहा जाम कि-'वस्त्र आदि में 'मम एवं-यह मेरा है इसप्रकार का अभिनिवेश होने से वह अमिष्वङ्ग का विषय बन सकता है तो यह कथन समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि शरीर में भी. अनासक्त, एवं समस्त देश का कान प्राप्त कर लेने वाले साधुओं को वस्त्र आदि में उक्त अभिनिवेश नहीं होता, जैसे कि वाचकमुख्य में कहा है कि
___'जिस प्रकार अश्व अनेक आभरणों-भूषणों से सज्जित होने पर भी उनमें आसक्त नहीं होता उसीप्रकार निर्ग्रन्थ साषु वस्त्र आदि उपग्रहों यामी उपकरणों से युक्त होने पर भी उनमें आसक्त नहीं होला ।'
बस्त्र आदि धारण करने पर भी उसमें आसक्त न होने से साधु के व्रत को हानि नहीं होतो यह बात दिगम्बरों को भी मामनी होगी, अन्यथा जो साधु समस्त सङ्ग का त्याग कर 'शुक्लध्यानरूप अग्नि से अपने कर्मरूप इन्धन को मस्म करने में संलग्न है उसके शरीर पर यदि कोई मस्सरी व्यक्ति उसको साधना में विघ्न उत्पन्न करने के विचार से अथवा मक्ति से प्रेरित हो वस्त्र आदि डाल ये तो उस वस्त्र आदि परद्रष्य में उसकी रति हो जाने से उसकी मो स्वात्ममात्रनिष्ठता का बाष होने लगेगा।
१. शुक्लध्यान-शुभ ध्यान की उच्चतम कक्षा