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________________ [शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४ "*परब्यम्मि पविती ण मोहजणिया व मोहजण्णा वा। जोगकया हु पवित्ती फलकंखा राग-दोसकया॥१॥" इति । [अ० म०प०२२] कथं च स्वोपात्तवसति-पुस्तकादौ न परद्रव्यरतिः १ । 'परस्वखाऽपरित्यागादिति चेत् ? कथमाहारादौन सा ! | 'आध्यात्मिकस्वत्वसंबन्धाभावादिति चेत् ? तुन्पमिदमन्यत्र । 'आहारादिकं कर्मभोगसामध्यसंपादितमिति न तत्र रतिरिति चेत् ? इदमप्यन्यत्र समानम् । वस्तुतो विपक्षभावनाप्रतिरुद्ध रतिमोहोदये नालम्बनमात्राव परद्रव्यरतिरिति विभावनीयम् । [स्वयं गृहीत द्रव्य में भी रति के अभाव का संभव ] यदि यह कहा जाय कि-अपनी इच्छा से ग्रहण किये हुये वस्त्र आदि से ही परदध्य में रति का उदय होता है, प्रकारान्तर से प्राप्त वस्त्र आदि से नहीं होता-तो यह बात स्वेच्छा से ग्रहोत उसी वस्त्र मावि में संगत हो सकती है जिसमें ग्रहीता की तृष्णा हो, किन्तु साधु द्वारा गृहीत घस्त्र माधि में उसको तृष्णा नहीं होतो, यह बात कही जा चुकी है। प्रतः स्वेच्छागृहात बस्त्र से साघु को परमध्य रति होने की सम्भावना नहीं को जा सकती। यह बात व्याख्याकारने अन्यत्र इस प्रकार कह रखी है कि पर द्रव्य में जो प्रवृति होती है वह केवल पर द्रव्यविषयक होने मात्र से न मोह का कारण ही होती और न मोह का कार्य ही होती है, किन्तु प्रवृत्ति मन-वचन-काया के योगों से जन्य होती है। और फलेच्छा राग से अथवा द्वेष से होती है । अतः फलाशंसारहित प्रवृत्ति मोह की जनक तथा मोहजन्य होती नहीं है। यह भी विचारणीय है कि यदि स्वेच्छापूर्वक प्रहरा हो वस्तु में पखव्यरति का जनक है तो स्वेच्छा से गहीत आवास-स्थल तथा पुस्तक प्रावि में साधु को परद्रव्यरति क्यों नहीं होती? यदि जन वस्तुओं में परकीयस्वत्व का त्याग न होने से उनमें परव्रध्यरति का अनुवय माना जायगा सब तो इस प्रश्न का उसन दुष्कर होगा कि आहार आदि में तो परकीयस्वत्व का त्याग हो जाता है, तो फिर स्वेच्छा से आहार ग्रहण करने पर साधु को परद्रव्यरति क्यों नहीं होती? यदि उत्तर में यह कहा जाय कि-'परद्रव्यरति का कारण है, ब्रव्य के साथ व्यक्ति का आध्यात्मिकस्वत्वसम्बन्ध, आहार आदि में साधु का यह सम्बन्ध न होने से उसमें उसे परद्रव्यरति का उवय नहीं होता'-तो यह बात वस्त्र आदि के विषय में भी कही जा सकती है। यदि यह कहा जाय कि-'कर्म में जो भोगजतिका शक्ति होती है उससे सम्पादित होने के कारण आहार में परद्रव्यरति नहीं होती'-तो यह बात वस्त्र आदि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है क्योंकि वस्त्र आदि की प्राप्ति भी कर्मगत भोगजनक शक्ति से हो सम्पादित होती है। सच बात तो यह है कि साधु वस्त्र आदि जिन वस्तुओं को प्रहण करता है, उनमें वह विरक्ष क्रो-यह शरीर भो मेरा नहीं तो यह वस्त्र कसे मेरा हो सकता है ? दोनों मेरे से पर है-ऐसी अन्यत्व मावना करता है, यह विपक्ष भावना ही उस वस्तु में उसकी रात और मोह के उदय को बाधिका है, प्रतः आलम्बनमात्र से-अनुकलभावनाशून्य वस्तुमात्र से उसे पर द्रव्यरति का उक्य नहीं होता। परद्रव्ये प्रवृत्तिनं मोनिका वा मोहजन्या वा। योग कृता खलु प्रवृत्तिः फलकाङ्क्षा राग-द्वेषकृता ।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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