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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ क्लो० ४
एतेन द्रव्य भावपरिणति मेदकन्यनापि परिग्रहाश्र केचिदपास्ता, अतिक्रमा-नाचारादिरूपयोश्वकर्षोत्कर्षयोर्मावाश्रमधर्मत्वादेव, तत्र चानाभोगाऽऽभोगादिरूपस्यात्मधर्मस्यैव विशिष्य नियामकत्वाद, द्रव्यादिपरिणतेः क्षेत्रादिपरिणतेरिव तत्र वक्तुमशक्यत्वात्, आत्माseverधर्म यो संक्रमात् 'द्रव्याश्रवसत्त्व आत्मन एव काचिद् द्रव्याश्रवपरिणतिः' इति परिभाषाया नि लत्वात्, अन्यथा द्रव्यहिंसादेरनैकान्तिकच्छेदाभिधानविरोधादित्यन्यत्र विस्तरः ।
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यदपि कथं चैवं परद्रव्य रतिसाम्राज्ये स्वात्मप्रतिषन्धमात्र विश्रान्तश्रामण्यसमृद्धिः १ इत्युक्तम्, तदप्ययुक्तम्, परद्रव्यसंनिधानमात्ररूपाया रते क्तावप्यनुच्छेदात्, अभिष्वङ्गरूपाया रतेस्तु धर्मोपकरणेऽभावात, अभिष्वङ्गविषयस्य सतः शरीरादेरप्यधर्मोपकरणत्वात् । न च शरीरेऽप्यप्रतिबद्धानां विदितवेद्यानां साधूनां वस्त्रादिषु 'ममेदम्' इत्यभिनिवेशः । तदुक्तं वाचकमुख्येन
अशक्य है, क्योंकि संसार के आपावक श्रात्मवर्मो का ही त्याग मोक्ष के लिये आवश्यक होता है, किन्तु जो शरीरादि का धर्म है उसका त्याग उपादेय नहीं है और शरीर आदि के रहते वह शक्य मी नहीं है। भगवान् महाभाष्यकार ने इसी बात को इस रूप में कहा है कि- 'सूत्र में जो अपरिप्रहता बताई गई है, उसका आशय यह है कि परिग्रह का अर्थ है मूर्च्छा प्रासक्ति, समो द्रव्यों में उसका परित्याग करना चाहिये ।
[ द्रव्यादिपरिणति आत्मधर्म नहीं हैं ]
कतिपय दिगम्बरों का कहना है कि परिग्रहरूप आस्रव की दो परिणतियां होती है द्रव्यास्मकपरिणति और मात्रात्मकपरिणति । यदि यति वस्त्र का परिग्रह करेगा तो यह परिग्रहरूप प्रालय की व्यात्मक परिणति से प्रतिबद्ध होगा जिस से उसके अपरिग्रहवत का भङ्ग अपरिहार्य है । इस कथन के विरोध में व्याख्याकार का कहना यह है कि झपकर्ष और उत्कर्ष दोनों भाषाश्रय के ही धर्म हैं । उनमें ' अपकर्ष अतिक्रमरूप है और उत्कर्ष अनाचाररूप है। उनके क्रमशः नियामक हैं'मनाभोग और आभोग, जो आत्मधर्म हैं। क्षेत्रादिपरिणति के समान द्रव्यादिपरिणति को भी आत्मधर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह वस्तुतः धनात्मषमं है और अनात्मधमं का आत्मा में संक्रम क्रम-सम्बन्ध नहीं हो सकता । द्रव्याखव के होने पर 'द्रव्यावपरिणति म्रात्मा की ही होती है ऐसी दिगम्बरों की परिभाषा का कोई प्रमाणसम्मत आधार नहीं है, अन्यथा इसी के समान द्रव्यहिंसा को भी आत्मा की परिणति कहना सम्भव होने से उसे 'अलैकान्तिकच्छेव कहना असंगत हो जायगा ।
१. अपकर्ष अतिक्रमरूप है। अतिक्रम व्रत भंग की सन्मुखतारूप है । २. उत्कर्ष अनाचाररूप- व्रत का भङ्ग यह अनाचार है । ३. अनाभोग अनजानपन है । ४, आभोग जानबुझ अवस्था है । ५. द्रव्यास्वपरिणति बाह्य कर्मबंधनिमित्त की अवस्था । ६. द्रव्यहिंसा हिंसा परप्राणनाश । ७. अनेकातिच्छेद अन्तरंग संयम के छेद में विभाषा ।