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स्थाका टीका एवं हिन्वीविवेचन ]
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यपि 'कथं च द्रव्यता, क्षेत्रतः, कालता, भावतो वा कृतपरिग्रहप्रत्याख्यानस्य वस्त्रोपादाने न पश्चममहावतभङ्गः ?' इत्युक्तम् , तदपि मृ परित्यागे भावतः परिग्रहप्रत्याख्यानोपपत्तावपि द्रव्यतः परिग्रहप्रत्याख्यानभङ्गाभिप्रायेण अयुक्तश्चायमभिप्रायः, कायादिसत्त्वेऽपि तत्प्रत्याख्यानभङ्गप्रसङ्गात् । द्रव्यादिविकल्पैः 'से परिग्गहे चविहे पभने दबओ, खित्तओ, कालओ, मावओ इति सूत्रस्य 'सर्वद्रव्यादिविषयमृच्छत्यिाग एव कर्तव्य' इति परमार्थाद , द्रव्यादिपरिग्रहस्य नामादिपरिग्रहबदनात्मधर्मत्वेन प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् । तथा च भगवान् भाष्यकार:-[वि. आ. भा. ३०६३ ]
“अपरिग्गडया सुत्ते ति जा य, मुच्छा परिग्गहोऽभिमओ।
सबदव्येसु ण सा कायया सुत्तसम्भावो ॥ १॥ इति । विपक्षतारूप हेतु भी प्रसिद्ध है, क्योंकि पहले यह कह आये हैं कि वस्त्रादि धर्मोपकरणरूप होने से नंग्रन्थ्य के सहायक है. प्रतिकूल नहीं है ।
[ खग्रहण से पक्खाण का भंग नहीं] यति के वस्त्रग्रहण के विरोध में जो यह बात कही गई है कि-"यति द्रव्य, क्षेत्र, काल और माव से परिग्रह के प्रत्यास्यान का व्रत लेता है. अत: वस्त्रग्रहण करने पर अपरिग्रहरूप पांचवे महाबत का भङ्ग होगा उसके कहने का प्राशय यह है कि वस्त्र प्रादि में आसक्ति न होने से वस्त्रग्रहण करने पर भी यसि को भले भावपरिग्रह के प्रत्याख्यान में यद्यपि कोई बाधा न होती हो किन्तु वस्त्रगहण से उसके द्रव्यपरिग्रह के प्रत्यास्यान का तो भङ्ग होना अनिवार्य है । अतः यति का वस्त्रग्रहण अनुचित है।
किन्तु यह आशय युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वस्त्रग्रहण से द्रव्यपरिग्रह का प्रत्याख्यान यदि बाधित होगा तो शरीरधारण प्रावि से भो द्रव्यपरिग्रह के प्रत्यास्थान को बाधित होने को प्रसक्ति होगी, क्योंकि वस्त्र के समान पारीर भी एक प्रकार का व्रव्यपरिग्रह ही है, अतः परिग्रह का उल्लेख कर उसके प्रत्याख्यान की कत्तव्यता के प्रतिपादक सूत्र का यह अर्थ मानना होगा कि परिग्रह के भो भार भेव माने गये हैं-द्रव्यपरिग्रह, क्षेत्रपरिग्रह. कालपरिग्रह और मावपरिग्रह, इन सभी परिग्रहों का स्याग करना चाहिये, अर्थात द्रव्यासक्ति, क्षेत्रासक्ति. कालासक्ति और मावासक्ति का परित्याग करना चाहिये । सूत्र का यह परमार्थ मानने पर यति का वस्त्रग्रहण उसके अपरिग्रहवत का विघटक नहीं हो सकता, क्योंकि गृहीत वस्त्र में उसकी आसक्ति न होने से उसका आसक्तिपरित्यागात्मक अपरिग्रह अक्षुण्ण रहता है। दूसरी बात यह है कि द्रव्याविपरिग्रह नामादिपरिग्रह के समान प्रात्म धर्म नहीं है, प्रतः जैसे नामादि के परिप्रह का प्रत्याख्यान अशक्य है उसीप्रकार ब्यादि परिग्रह का भी प्रत्याख्यान
१. अथ परिग्रहश्चतुविधःप्राप्त:-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः । २. अपरिग्रहता सुत्र इति या च मूर्छा परिग्रहोऽभिमतः । सर्वद्रव्येषु न सा कर्तव्या सूत्रसद्भावः ॥ १॥ ३. विशेषावश्य केऽष्टमनिह्नवप्रकरणे गाथा ३१ ।