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[ शास्त्रवार्ता० स० १० / २१
च व्याप्तेरेव तस्यागममूलत्वम्, तदा तस्य प्रत्यक्षाऽनुमानमूलत्वमप्यत एवानुमेयम् अनादेस्तदनपेक्षायां चाचारोऽपि कश्विदीदृशः स्यादिति 'नित्यानुमेयो वेद' इति 'चोदनैव धर्मे प्रमाणमिति च भज्येत । किश्च शाखोच्छेदे कृत्स्नस्यापि वेदस्य कदाचिदुच्छेदात् कथममे स्वतन्त्र पुरुषं विना संप्रदायः, धर्मादिव्यवस्था वा ? | 'गतानुगतिक एवं लोक' इत्यप्रामाणिक एवाचारो न तु शाखोच्छेदः अनेकशा वागतेतिकर्तव्यता पूरणीयत्वादेकस्मिन्नपि कर्मण्यनाश्वासप्रसङ्गात्' इत्युपगमे तु वेदानामपि गतानुगतिकतयैव लोकैः परिग्रहादप्रमाणत्वप्रसङ्गाद् । दोषान्तरमाह-न चावजूद र्शिना = छद्मस्थेन प्रमात्रा तस्य वेदस्य अतीट्रियायैः-वर्गात अवसीयते - निश्चीयते ॥ २० ॥ ग्रामाण्यं रूपविषये संप्रदाये न युक्तिमत् । यथाऽनादिमदन्धानां तथात्रापि निरूप्यताम् ||२१|| ततश्च - रूपविषये नीलपीतादिविषये व्यवस्थाकारिणि यथाऽनादिमदन्धानां संप्रदाये
आचार ही, आचार और स्मृति की परम्परापेक्ष परम्परा का मूल है अत: आचार से वे का अनुमान न हो सकने से जिस आचार की कर्तव्यता का बोधक वेद उपलब्ध नहीं है उस आचार का प्रवर्तकद नित्यानुमेय है' एवं 'विधिवाक्य ही धर्म में प्रमाण है' इन दोनों मान्यताओं का भंग हो जाता है ।
[ स्वतन्त्ररुप के बिना वेदसम्प्रदायप्रवृत्ति असंगत ]
इस के अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि यदि वेद की किसी शाखा का उच्छेद माना जायगा तो कभी समूचे वेद का भी उच्छेद मानना पड सकता है | अतः वेदार्थयेता स्वतन्त्रपुरुष माने त्रिना उत्तरकालीन वेदसम्प्रदाय की प्रवृत्ति तथा धर्म आदि की व्ययस्था कैसे हो सकेगी ? यदि यह कहा जाय कि संसार गतानुगतिक है, संसार के लोग 'मत' का ही अनुगमन करते हैं, चलते मार्ग से ही चलते हैं। अतः संसार में प्रचलित आचार अप्रामाणिक ही है। उस का प्रचलन संसार के गतानुगमन की प्रति से ही प्रवृत्त हैं । उम के अधिक वेदशाखा का उच्छेद नहीं होता, यदि वेदशाखा का उच्छेद माना जायेगा तो कम की इतिकर्तव्यता के अनेक वेदशाखाओं से बोध्य होने के कारण वेदबोध्य किसी एक भी कर्म में मनुष्य को उस आशङ्का से विश्वास न हो सकेगा कि कदाचित् इस कर्म की किमी इतिकर्तव्यता के बोधक वेदशाखा का उच्छेद न हो गया हो किन्तु यह कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर इस मान्यता का भी औचित्य प्रसक्त हो सकता है कि संसार द्वारा वेद का परिग्रह भी उस की गतानुगमन की प्रकृति के कारण ही है अतः द अप्रमाण ही है । उपर्युक्त के अतिरिक्त एक दोष यह भी है कि अग्दर्शी छद्मस्थ जीव को वेद में धर्म आदि का प्रतिपादन करने की शक्तिरूप अतीन्द्रिय अर्थ का निश्चय भी नहीं हो सकता। अतः सामान्यजन को यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि वेद में धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन करने की शक्ति है या नहीं ? ' फलतः वेद से धर्म, अधमें आदि की व्यवस्था होती है' इस बात को प्रमाणित करना अशक्य है ||२०||
[ अनादि अन्धसम्प्रदायवत् वेदसम्प्रदाय का अप्रामाण्य ]
२१ वीं कारिका में उपर्युक्त विचार का फल बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैवेदार्थ के जिशासु को बंद में प्रामाण्य सिद्ध न होने से बंद के वास्तविक अर्थ का