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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] व्यामोहदोघाद यथाकथञ्चित् प्रवृत्तेऽपि, प्रामाण्य न युक्तिमत् मूलासंभवात् , स्वतोऽपरिच्छेदशक्तेश्च; तथाऽत्रापि वेदाद् धर्मादिसंप्रदायेऽपि निरूप्यतां विभाव्यताम् ।।२१।।
ननु लौकिकपदार्थतुल्यतया प्रसिद्धशब्दार्थत्वमेव वेदपदानाम् , अतो नात्र वृथा नाम कल्पना, इति न निर्मलत्वं संप्रदायस्येत्याशक्याह-- न लौकिकपदान तत्पदार्थस्य तुल्यता । निश्चतुं पार्यतेऽन्यत्र तद्विपर्ययभावतः ॥२२॥
न लौकिकपदार्थेन-न लोलोला गादिपतापनि पदो-तिना सह बरदाय वेदोक्ताम्यादिपदार्थस्य तुल्यता-एकत्वम् निश्चतुं पार्यते । कुतः । इत्याह-अन्यत्र नित्यत्वादी, विपर्यभावत: लौकिकपदतुल्यताविपर्ययभावान् । तथा चान्याद्यर्थकाऽनान्या द्यर्थकलौकिकाग्नि-घटादिपदव्यावृत्तनित्यत्वादिधर्मजनिते वेदस्थान्या दिपदेऽम्यर्थकत्वादिसंशयसाम्राज्यमिति भावः ।।२२।। नित्यत्वाऽपौरुषेयत्वाद्यस्ति किश्चिदलौकिकम् । तत्रान्यत्राप्यतः शङ्का विदुषो न निवर्तते ॥२३।। निश्चय नहीं हो सकता-यह बात अन्धसम्प्रदाय के दृष्टान्त से अवगत हो सकती है। जैसे जन्मान्धों का सम्प्रदाय यदि यह व्यवस्था करे कि अमुक नील है और अमुक पीत है, तो व्यामोहवश अन्य अन्धों को उक्त व्यवस्था मान्य होने पर भी उस सम्प्रदाय में प्रामाण्य का अभ्युपगम युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योकि जन्मान्धों द्वाग की जानेवाली विभिन्न रूपों की व्यवस्था का कोई मूल नहीं है और कोई अन्धा अन्यापेक्ष हुये बिना नील, पीत आदि का निश्चय कर नहीं सकता अतः नील, पीत आदि रूपों की व्यवस्था करनेवाले जन्मान्धों के सम्प्रदाय में प्रामाण्य का अवधारण नहीं हो सकता । उसी प्रकार निर्मूल परम्पग से वेदार्थ का भी निर्णय नहीं हो सकता ॥२२॥
वेदार्थ में लौकिकपदार्थतुल्यता अघटित ] २९ वीं कारिका में वेदसम्प्रदाय के निर्मूल न होने की शिक्षा का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
यदि यह कहा जाय कि-'वैदिक पदों और लौकिक पदों के अर्थों में तुम्यता है, अतः वेदपदों के प्रसिद्वार्थक होने से वेदों में आये नामों से बेदवक्ता के नाम की कल्पना ध्यर्थ = असंगत नहीं है, अतः एव बदसम्प्रदाय की निर्मुलता नहीं हो सकती'-तो इस का उत्तर यह है कि लोकोक्त अग्नि आदि पद और वेदगत अग्नि आदि पदों के अर्थों में समानता नहीं है, क्योंकि वेदस्थ अग्नि आदि पदों में शोकोक्त अग्नि आदि पदों से विलक्षणता है क्योंकि कौकिक, अग्नि आदि पद अनित्य है तथा वैदिक अग्नि आदि पद नित्य हैं। नित्य इस अर्थ में यि वे किसी पुरुष द्वारा अर्थविशेष में इदम्प्रथमतया प्रयुक्त नहीं हैं जब कि लौकिक पदों का बहुधा तत्तत् अर्थ में इदम्प्रथमतया प्रयोग होता है। अतः इस विलक्षणना के कारण वैदिक पदों में इस प्रकार के संशय को अत्यधिक अवकाश है कि वेद में आये अग्निपदों का वही अर्थ है जो लौकिक अग्नि आदि पदों का होता है अथवा उन का कोई अन्य अर्थ है ? ॥२२॥
२३ थीं कारिका में पूर्वकारिका में कही बात को ही स्पष्ट रूप में कहा गया है। कारिका अर्थ इस प्रकार है१. प्रत्यन्तरेषु वृद्धानाम' ।