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________________ स्वा. क. टीका - हिन्दी विवेचन एतदेव भावयति--- परस्त न वृद्धसंप्रदायेन च्छिन्नमूलत्वयोगतः । न चाग्दिर्शिना तस्यातीन्द्रियार्थोऽवसीयते ||२०|| न वृद्ध संप्रदायेन वृद्ध पारम्पर्येणैव वेदाद् धर्मादिसंस्था ज्ञायते । कुतः ? इत्याह छिन्नमूलत्वयोगत: == आदावेव तत्तः केनचिदज्ञानाद मूलस्यैवान्केदात् । न चाचारात् स्मृतिः, स्मृतेराचार इत्यनादिपरम्परायां न दोषः, यावदर्थदर्शनाभ्यासपरिपक्वज्ञानैरेव स्मृतिप्रणयनात्, दुपजीवनादिति वाच्यम्; तत एव वेदार्थसिद्धेर्वे दवैयर्थ्यात् । ' तयोः स्वातन्येणाप्रामाण्याद वेदमूलत्वमावश्यकम् अत एव शिष्टाचारविशेषादप्रत्यक्षस्यापि वेदस्यानुमानमिति चेत् ? शिष्टाचारत्वेनैव कर्तव्यतामनुमाय तया मूलशब्दानुमानाऽनुपयोगात्, तदर्थस्य प्रागेव सिद्धेः । यदि ' [ १२३ श्री कारिका में उक्त मान्यता की निर्मुकता का ही चिन्तन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है उक्त प्रश्न के उत्तर में यदि यह कहा जाय कि 'द धर्म-अधर्म का निर्णयक है यह बात क्रुद्ध=ज्ञानवृद्ध पूर्वपुरुषों की परम्परा से बात की जा सकती है यह ठीक नहीं है क्योंकि वृद्धपरम्परा से ज्ञात होने का अर्थ यदि यह हो कि पूर्व पुरुषों द्वारा किये गये वेदव्याख्यान से पावर्ती पुरुषों को वेदप्रतिपाद्य धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान होता है, तो यह अर्थ उचित नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रक्रिया में वेद के प्रथम व्याख्याता को पदार्थ का ज्ञान न होने से वेदव्याख्यान की परम्परा नहीं बन सकती । यदि यह कहा जाय कि - ' वृद्धपरम्परा का अंध व्याख्यान की परम्परा नहीं है अपितु आचार और स्मृति की परम्परापेक्ष परम्परा है। तात्पर्य यह है कि आचार से स्मृति और स्मृति आचार की प्रवृत्ति का क्रम अनादि है। जिन पुरुषों का शाम यावद अर्थ के दर्शनानुसार आचार के अभ्यास से पिक्व हो जाता है व हो स्मृति की रचना करते हैं। स्मृतिरचना के बाद के मनुष्य स्मृति से कर्तव्य का ज्ञान अर्जित कर उस के आचार अनुष्टशन में प्रम होते हैं ' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आधार और स्मृति की अनादि परम्परा स्वीकार करने पर आचारानुसार रचित स्मृति से ही वेदार्थ का ज्ञान हो जाने से वेद का अस्तित्व मानना व्यर्थ हो जायगा | [ आचार और स्मृति में वेद विना मी प्रामाण्य की शक्यता ] यदि यह कहा जाय कि ' आचार और स्मृति स्वतन्त्र प्रमाण न होने से उन के वेदमूलक प्रामाण्य की उपपत्ति के लिये वेद के अस्तित्व को मानना आवश्यक है। यही कारण है जिस से शिष्टाचारविशेष से अप्रत्यक्ष वेद का अनुमान होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शिष्टाचार से कर्तव्यता के अनुमान द्वारा आचार की उपपत्ति हो जाने से मूल शब्द के अनुमान की यौक्तिकता नहीं बन सकती क्योंकि वेदप्रतिपाथ कर्तव्यता का बोध वेदानुमान के पूर्व शिष्टाचार से ही सम्पन्न हो जाता है। यदि शिक्षचार में वेदमूलकत्व व्याप्ति से शिष्टाचार द्वारा वेद का अनुमान किया जायगा तो वाक्यमात्र प्रत्यक्ष अथवा अनुमानमूलक होता है इ व्याप्ति से वेद में प्रत्यक्ष अथवा अनुमानमूलकत्व का अनुमान होने से वेद के स्वतः प्रामाण्य का लोप हो जायगा । वेद के अनादि होने से उसे प्रत्यक्ष अथवा अनुमान की अपेक्षा नहीं होती' यह कल्पना करने पर तो यह कल्पना भी सम्भव हो सकती है कि कोई अनादि
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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