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[ शासवार्ता स्त. १९/८ स्वभावः, अस्वभावः, निरुपाख्यम् , तुच्छता' इत्यादिशन्दैलिमन्त्रयप्रतिपत्तिदर्शनाच्च । 'स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः' इत्यन्यः; तदपि न, तेष्वेव सामान्यविशेषेष्वन्तरेणाप्यपरं सामान्यविशेषं 'जातिः, भावः, सामान्यम् ' इत्यादेः स्त्री-पु-नपुंसकलिङ्गस्य प्रवृत्तिदर्शनात् । यदि तु सामान्यस्याप्यस्यापराणि सामान्यानीष्यन्ते वैयाकरण:-प्रत्ययामिधानान्वयव्यापारकार्योन्नीयमानरूपा हि जातयः; न हि तासां शास्त्रान्तरपरिदृष्टा नियमव्यवस्थति; तदुक्तम्- [वा०प० ३-१-११) "अर्थजात्यभिधानेऽपि सर्वे जातिविधायिनः । व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः ॥१॥ इति ।"
तथाप्यवस्तुनि लिङ्गप्रतीत्यनुरोधाद् व्याकरणनियन्त्रितपरिभाषाविशेषप्रतिसंधानमहिम्नाऽर्थप्रति
घाले शब्द रूप अभिधान और अन्वयध्यापार यानी पदार्थसंसर्गग्राही बोध रूप कार्यों से जाति को अनुमेय माना जाता है। अतः उक्त कार्यात्मक लिङ्ग, जाति आदि में भी सम्भव होने से जाति में भी जाति की अनुमति के निर्बाध होने के कारण जाति में जाति के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जिप्त मत में भावकार्य के कारणतावच्छेदक रूप में अथवा भावनिष्ठ कार्यता के अयच्छेदक रूप में जाति की अनुमिति होती है उस मत में ही सामान्य आदि में उक्त कारणता और कार्यता के न होने से उन में जाति के होने में बाधा हो सकती है। किन्तु जानि के सम्बन्ध में उस मत में माने हुए नियम एसे मत में लागू नहीं हो सकते कि जिस में प्रत्यय, अभिधान आदि से जाति की अनुभेयता मान्य हो, जैसे कि गोत्वं जातिः गजत्वं आतिः, अश्वस्त्र जातिः आदि अनुगत बुद्धि, पवं गोत्व आदि में प्रयुक्त जाति शब्द, तथा 'जातिः नित्या' इस प्रकार के 'जाति'शब्दार्थ में नित्य 'शब्दार्थ के अभेद संसर्गग्राही बोध से गोत्र आदि जाति में आतित्व सिद्ध होता है, और इसीलिये इस मत में उसे जात्यात्मक मानना उचित प्रतीत होता है।
वाक्यपदीय की कारिका में कहा भी गया है कि-" यद्यपि 'गो' आदि शब्द से गो आरि अर्थों में विद्यमान गोत्व मादि जाति का ही अभिधान होता है। तो भी इससे यह नहीं कहा जा सकता कि 'गो आदि शब्द ही जाति के अभिधायक हैं। और गो आदि अर्थों में ही जाति रहती है' किन्तु सभी शब्द जाति के अभिधायक होते हैं, और उन शब्दों के अर्थ जाति के आश्रय होते हैं क्योंकि पदार्थ व्यापार ( =प्रयोजन) से शाप्य माने जाते हैं। अर्थात् जिस पर से जिम अर्थ का बोध होता है वही उस पद का अर्थ होता है, यही सर्वाभिमत मत है।" अत असे गो आदि शब्दों से गो आदि अर्थ का बोध होने से गो आदि अर्थ 'गो' आदि पद का वाच्यार्थ माना जाता है उसी प्रकार जाति पद से गोत्य, गजत्व आदि का बोध होने से गोल्ब-गजत्व आदि भी पद का घाख्यार्थ है । और जैसे मौ: नलति-गौः कृष्णा' इत्यादि शब्दों से होने वाले अन्य बोध के अन्ययितावच्छेदक रूप में गोत्व आदि की सिद्धि होती है, और उन जाति माना जाता है, उसी प्रकार “जातिः नित्या, ' 'जातिः प्रमेया' इत्यादि शब्दों से होने वाले बांध में अन्वयितावच्छेदक रूप से जातित्व का भान होता है। अत: उसे भी जाति मानना उचित है।
[ वैयाकरण मत के ऊपर बौद्ध की मीमांसा ] ध्याकरण के मतानुसार जाति में जाति आदि के अस्तित्व का उक्त रीति से औचित्य