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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] परेषां मतम्, तत्करणस्य शुभभावनिमित्ततया कर्मक्षयाऽवन्ध्यकारणत्वात, विपर्ययशङ्कायाश्च विना कल्मषमनुदयात् । यदि च येयावस्थायां भगक्ता भूषणादेस्नङ्गीकृतत्वाद् न तत्पतिकृतौ तद् विधेयम्, तदा समजनाङ्गराग-पुष्पादिधारणस्यापि तदवस्थायां भगवताऽनाश्रितत्वाद् न तत् तत्र वित्रेयं स्यात् । अय मेहमस्तकादिपु तदभिषेकादाविन्द्रादिमिस्तस्य विहितत्वादस्मदादिमिरपि कृतानुकरणादिमिर्हेतुभिस्तत् तत्र विधीवते, तर्हि तत एवाभरणादिबिभुषादिकमपि विधेयम् , कृतानुकरणादेः समानत्वात् । न ह्येतदत्र स्पर्धासाधनम् , किन्तु प्रवृत्तौ निर्मलत्वशक्कानिरासेन भावाभिवृद्धिनिबन्धनमिति दिक् ।
अथाऽकल्याणभाजनबाद् न मुक्तियोग्याः स्त्रिय इति चेत ! न, तीर्थकरजननात् : न ह्यतः परं कल्याणमस्ति लोके । अथ हीनबलत्वादेव स्त्रीणां न मुक्तिरिति चेत् ? न, रलायसाम्राज्ये हीनबलवत्त्वस्याऽप्रयोजकत्वात् ; अन्यथा स्त्रीभ्योऽपि हीनयलाः पञ्वादयः पृरुपा रत्नत्रयसाम्राज्येऽपि न मुच्येरन् । 'हीनचलानां विशिष्टचारूपं चारित्रमेव न स्यादिति चेत् ? न, यथाशक्तयाचरणरूपस्य
[इन्द्रादिकृत भक्ति अनुकरणीय] यदि यह कहा जाय कि 'ध्येय अथवा केवलशानरूप परमात्मस्वरूप अवस्था में भगवान ने भूषण आदि को अङ्गीकार नहीं किया है अत: उनकी प्रतिमा को भी भूषण आदि से अलंकृत नहीं करना चाहिप' तो पेसा मानने पर यह बात भी प्राप्त होगी कि भगवान ने ध्येयावस्था में मजम, अङ्गराग और पुष्प आदि भी अङ्गीकार नहीं किया है अत: उनकी प्रतिमा में मजन आदि भी करना अनुचित है । यदि यह कहा जाय कि-' मेरुमस्तक आदि पर इन्द्रादि ने मजन अङ्गराग पुष्पमाला आदि से भगवान का पूजन किया है अतएव उनके अनुकरण में भगवान के अन्य भक्तों को भी उन साधनों से भगवान की प्रतिमा का अर्चन करना सुसङ्गत हैं'-तो उसी प्रकार यह भी कहना अतीय समीचीन है कि यत्तः इन्द्रादि ने वस्त्रभूषण आदि से मेरुमस्तक आदि पर भगवान का अर्चन किया है. अतः अन्य भगवद-भक्तों का भी वस्त्रभूषण आदि से भगवान की प्रतिमा का पूजन करना सर्वथा उचित है । भगवदभक्तों द्वारा इन्द्रादि के अनुकरण करने की जो बात कही गयी है वह इन्द्र आदि के साथ स्पर्धा की वृद्धि के लिए नहीं, अपितु उक्त प्रवृत्ति में निर्मूलत्व की शङ्का का निराकरण कर भाव की अभिवृद्धि के लिए कही गयी है।
[स्त्रीकल्याण का भाजन इस सन्दर्भ में स्त्रीमाक्षविरोधियों का यह कहना कि स्त्रियां कल्याण (उत्तम कार्यफर्तता) का पात्र नहीं है, अत: मुक्ति के अयोग्य हैं। ठीक नहीं है, क्योंकि नियां तीर्थकर को जन्म देती हैं, फिर इससे उत्कृष्ट संसार में दूसरा कौन सा कार्य है जिससे उन्हें कल्याण का अपात्र कहना सम्भव हो सके? यह भी कहना कि-'त्रियां निर्यल होने के कारण मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य हैं' -ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र हन तीनों रत्नों की पूर्ण समृद्धि रहन पर निर्बलत्व मोक्ष का प्रतिरोध करने में अप्रयोजक है। उक्त रत्नत्रय का प्रकर्ष होने पर भी निर्बल होने के कारण मोक्ष का अभाव हो तो पङ्गु, अन्ध आदि पुरुष भी निर्बल होने से उक्त रत्नत्रय की प्रथुरता होने पर भी मुक्त न हो सकेंगे। यह भी कहना कि- 'निर्बलों में