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________________ ३२४ ] शानया स्त: ११/५४ तथात्वाद् न दोषः, तदा चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघस्यापि तीर्थशब्दाभिधेयत्वादायकाणामपि तत्रान्तर्भावात् तुत्यमेतत् । यत्तु 'धर्मे पुरुषोत्तमत्त्वविपर्ययशङ्कया स्त्रीणां चारित्रग्रहणं न युक्तम् ' इति; तदसभ्यअलपितम् ; आज्ञाशुद्धभावेन यथाशक्ति प्रवर्तमानामामार्यकाणामीदृशशङ्कानुदयात् , तस्याः पापजन्यत्वात् । अत एवं 'भगवतामनलकृतविभूपितत्वादिविपर्ययधीप्रसङ्गादाभरणादिभिर्विभूषा न विधेया' इति हतं नीय न होना मोक्षप्राप्ति का प्रतिवन्धक नहीं है अतः वह मोक्षाभात्र की सिद्धि में अप्रयोजक है । और यदि स्त्रीमोक्षविरोधियों की ओर से यह कहा जाय कि-'खियां पुरुषों द्वारा अभिवन्दनीय न होने से उनकी अपेक्षा अल्पगुणा होती हैं. अत: उनका मोक्ष नहीं हो सकता'-तो यह भी उचित नहीं हैं क्योंकि किमी एक मोक्षाधिकारी की अरेक्षा अन्य छयक्ति में अल्पगुणन्व को यदि मोक्ष में बाधक माना जायगा तो तीर्थयों की अपेक्षा गणधर आदि अल्पगुणवाले होने से उनकी भी मोक्षप्राप्ति बाधित हो जायगी। [चतुर्विधसंघस्वरूप तीर्थ में स्वीप्रवेश] यदि यह कहा जाय कि-'गणधरों के अशेष कर्मक्षय का कारणभृत अध्यवसाय तीर्थकरों के अध्यवसाय के समान है अत: अध्यवसाय की दृष्टि से गणधरों में तीर्थरों की अपेक्षा अल्प. गुणत्व न होने से उक्त दोर नहीं होगा' -तो यह बात तो मोक्षमार्ग पर आरूढ स्त्रियों के सम्बन्ध में भी समान है। अत: उनमें भी उक्तरीति से मोक्षामाव का साधन अशक्य है। यदि सीमोनलिगधियों की ओर में यह कहा जाय कि-'तीर्थ भगवान का बन्ध है, प्रथम गणधर भी तीर्थशब्द से अभिहित होने से नीश रुप सोने के कारण भगवान के द्वारा बन्ध होने से अपेक्षा की दृष्टि से अल्पगुण नहीं है। अतः उनके मोक्ष में बाधा नहीं है तो मोक्षमार्गस्थ स्त्रियों के भी सम्बन्ध में उसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि चतुर्यात्मक श्रमण संघ को भी तीर्थ कहा जाता है। अत: उसके अन्तर्गत आने से मोक्षमार्गस्थ स्त्रीयां भी तीर्थरूप होने से पुरुष की अपेक्षा अल्पगुण नहीं कही जा सकती, अतः उनके भी मोक्ष में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'स्त्रियां यदि चारित्र ग्रहण करेगी तो उनमें शङ्का होगी कि धर्म में पुरुषवग ही उत्तम नहीं है। अत: स्त्रीयों का चारित्र ग्रहण अनुचित है और चारित्र ग्रहण के अभाव में उन्ई मोक्ष की प्राप्ति सुतराम् दुर्वट है।' -तो यह कथन असभ्यों के प्रलाप जैसा है, क्योंकि आशाशुभ भावानुसार अपनी शक्ति की सीमा में चारित्र पालन में प्रवृत्त आर्य स्त्रियों में इस प्रकार की शङ्का करना नितान्त असतत हैं, क्योंकि यह शङ्का पापजन्य है । [भगवान् की वस्त्राभूषण से पूजा न्याययुक्त ] रोमोक्षविरोधियों का एक यह भी मत है कि - भगवान को वस्त्र-भूषण आदि से मलंकृत नहीं करना चाहिए क्यों कि इस प्रकार अलंकार करने से यह शक हो सकती है कि-अलंकार के अभाव में भगवान स्वत: विभूषित नहीं होते । -किन्तु यह मत भी इस लिए निरस्त हो जाता है कि जो व्यक्ति भगवान को वस्त्र-भूषण आदि से अलंकृत करते हैं उनका यह कार्य शुभभाव मूलक एवं शुभभाष का वर्धक है। और इसी लिये कर्मक्षय का अवन्ध्य कारण है। और यह भी स्पष्ट है कि उक्त शङ्का का उदय मलिन फर्म वाले को ही होता है। इसलिए भगवान को अलंकृत करने वाले व्यक्तियों में मलिन कर्म का अभाव होने से उन्हें भगवान के विषय में उक्त प्रकार की ऐसी शङ्का होना नितान्त असङ्गत है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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