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________________ शास्त्रवार्ताः स्त० ११/५४ सत्त्वसाध्यम्य तस्य तासामप्यविरोधात् । न हि दुर्धरब्रह्मचर्यधारिणीनामसदभियोगादौ तृणवत्प्राणपरित्यागं कुर्वाणानां सत्त्वं तास नातिरिच्यत इति वक्तुं शक्यम् । न चानुपस्थाप्यतापाराञ्चितकानुपदेशेन तासु सत्त्वहीनता सिध्यति, सत्यापेक्षयैव शाने विशुद्धचनुपदेशात् , योग्यतापेक्षत्रैव तत्र तचिन्योपदेशात् । उक्तं च.... "संवर-निर्जररूपो बहुपकारस्तपोयिधिः शास्त्रे । योगचिकित्साविधिरिय कस्यापि कथञ्चिदुपकारी ॥१॥" तदेव संपूर्णयोग्यतामभिप्रेत्योक्तं यापनीयतन्त्रे-"नो ग्वलु इत्या अर्जवे, ण यावि अभव्या, न यावि दंसणविरोहिणी, नो अमागुस्सा, नो अणारिउत्पत्ती, नो असेखाउआ, नो अइकुरमई, नो न उवसंतमोहा, नो न सुद्धाचारा, नी असुद्धचोंदी, नो ववसायवजिआ, नो अपृच्चकरणविरोहिणी, नो नबगुणठाणरहिआ, नो अजोगा लीए, नो अकल्लाणभायणं ति कह न उत्तमधम्मसाहगा!" इति । एवं व्यवस्थितेऽनुमानमध्याहुः नुरालीजातिसंवन्यपहिला यनिमती, प्रनयाधिकारिजातित्वात् , पुरुषजातिवत् । न च तास प्रत्रज्याधिकारस्य पारम्पर्येणैव मोक्षहेतुतया निर्वाहादप्रयोजकत्वम् ; न चैवमरूपायाससाध्ये तद्धेतुदेशविरल्यादाधेव प्रवृत्तिः स्यात्, न तु मलायाससाध्यसर्वविरताविति वाच्यम् । देशविस्यादिभूयोभवटितपारम्पर्यण मोक्षहेतु स्वेऽपि चारित्रस्यैवाल्पभवघटितपारम्पर्यण विशिघ्र चर्या रूप धारित्र सम्भव नहीं है'. -ठीक नहीं है, क्योंकि यथाशक्ति आचरणरूप चारित्र जो सत्त्य-शुद्धभाव से साध्य है वह हीन बला खियों में भी सम्भव है । 'त्रियों में उत्कृष्ट सत्त्व हो ही नहीं सकता' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वे दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करती हैं और असत् कर्म के सम्मुख यह तृण के समान अपने प्राण तक का परित्याग कर देती हैं. फिर उनमें सत्य का उत्कर्ष न होने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? यदि यह कहा जाय कि शास्त्र में उन अनपस्थाप्यता, पाराश्विक दो प्रायश्चित का विधान नहीं है इसलिए ये सत्यहीन होती है। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्र में मत्स्य की अपेक्षा ही विशुद्धि (प्रायश्चित: का विधान नहीं है किंतु योग्यता की अपेक्षा ही विविध प्रायश्चितों का उपदेश हैं। कहा भी गया है कि शास्त्र में सम्बर-निर्जगरूप अनेक प्रकार के तपों का विधान किया गया है, उनमें कोई तप किमी के लिए और कोई तप किसी के लिए कथञ्चिन उपकारक होता है, सब सबक लिप. सर्वदा उपकारक नहीं होता। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे अनेक प्रकार के योग और चिकित्सा के विधानों में कोई-कोई योग और चिकित्सा किसी-किसी के लिए उपकारक होती है. मब सबके लिए नहीं । ___ यापनीय तन्त्र में, घी में सम्पूर्ण योग्यता की सम्भावना के अभिप्राय से कहा गया है कि “ स्त्री अजीब नहीं है, अभव्य भी नहीं हैं, सम्यगदर्शन की विधिनी भी नहीं है, वह अमानुषी भी नहीं है, यह सय अनार्य से उत्पन्न भी नहीं है, सभी स्त्री की आयु भी असंख्य वर्ष नहीं है,उमकी बुद्धि भी अतिकूर नहीं है, वह ऐसी भी नहीं है जिस का मोह उपशम-अयोग्य अनुपशाम्त हो, [शुद्ध आचारबाली नहीं है पता भी नहीं,] वह शरीर से अशुद्ध भी नहीं है, जिस में शुम चारित्र न हो, उसके लिए व्यवसाय उद्यम का निषेध भी नहीं हैं, अपूर्वकरण की वह विरोधिनी भी नहीं है, वह (६ से १४) नवगुण स्थानों से शून्य भी नहीं है, वह लधि के अयोग्य भी नहीं है और वह कल्याण का अभाजन भी नहीं है. तो फिर वह उत्तम धर्म की साधिका क्यों नहीं हो सकती?"
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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