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[ शासवार्ताः स्त० १०/१८ नहीं है, क्योंकि चक्षु ले वायु का ग्रहण न होने से घायु में कपाभाष की प्रतीति न हो सकेगी। 'रूपानुपलम्भ से वायु में रूपाभाष की आनुमानिक प्रतीति होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वायु में रूपानुपरम्भ का भी ज्ञान दुर्घट है। शायु में रूप के अप्राकटय से वायु में रूपानुपलम्भ का अनुमान हो सकता है। यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'उपलम्म से अर्थ में प्राकट्य शातता की उत्पत्ति होती है। इस मत का खण्डन हो चुका है। अतः जब प्राकटय ही नहीं है तब उस के अभाय से अनुपलम्भ का अनुमान कैसे हो सकता हैं?
अनुपलम्भ को अभावप्रमाण मानने पर एक यह भी दोष है कि अनुपलम्भ में कोई चलक्षण्य न होने से अभाव के ग्रहण निशेष में आलोक आदि की अपेक्षा न हो सकेंगी। कहने का आशय यह है कि अन्धकार में घट के स्वाच अनुपलम्भ से घटाभाध का ग्रहण होता है, उस में आलोक की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु अन्धकार में घट के चाक्षुप अनुपस्तम्भ से घटाभाव का ग्रहण नहीं होता अत: चाष अनपलम्भ से होनेवाले अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा मानी जाती हैं किन्तु यदि अनुपलम्भ ही अभाव का ग्राहक प्रमाण होगा तो अनुपलम्भ तो सब समान है चाहे वह त्वक् से घट का उपलभ न होने से दो या चाहे चक्षु से घट का उपलम्भ न होने से: उपन्छम्माभावात्मक अनुपलम्भ में तो कोई भेद होता नहीं तो फिर उसे किसी अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा न हो और किसी अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा हो, यह बात कैसे बन सकती है?
[करणलक्षण्य के विना अभावग्रहण के लक्षण्य का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'अभाव के ग्रहण में अनुपलम्भ को आलोक की अपेक्षा कहीं नहीं होती किन्नु जिस अधिकरण में अभावशान होता है उस अधिकरण के ज्ञान विशेष में उस के हेतु को आलोक की अपेक्षा होती है। जैसे: यदि चक्षु से गृहीत भूतल में घटानुपलब्धि से घटाभाव का ग्रहण करना होता है तब भूतलरूप अधिकरण के चाक्षुषशान के लिय चक्ष को आलोक की अपेक्षा होती है न कि आलोक सापेक्ष चक्ष से गृहीत भूतल में घटाभाम्रग्रहण के लिये घटानुपलब्धि को आलोक की अपेक्षा होती है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्धकार में त्वक से गृहीत भूतल में होनेवाले घटाभार ग्रहण में और प्रकाश में चक्ष से गृहीत भूतल में होनेवाले घटाभावग्रहण में बन्दक्षण्य स्पष्ट है, किन्तु यह प्रियागत लक्षण्य करणयन क्षण्य के बिना नहीं हो सकता और प्रकृत में अनुपलम्भरूप करण में कोई भेक्षण्य है नहीं और यदि अभावग्रहण के लक्षण्य की उपपत्ति के लिये विलक्षण अधिकरणज्ञान को उस का करण माना जायगा तो अभावप्रमाण का अस्तित्व ही समान हो जायगा ।
यदि यह कहा जाय कि-'अभायज्ञान का करण तो अभावप्रमाषा ही है. अधिकरणशान तो उस का सहकारी है । अतः करण में सहज वैलक्षण्य न होने पर भी सहकारीमूलक चलक्षग्य से ग्रहणक्रिया में बैलशपय हो सकता हैं और अधिकरणज्ञान से अभावप्रमाण की व्यर्थता भी नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अधिकरणज्ञान और अभावज्ञान यदि क्रम मे हो तभी उक्त कल्पना हो सकती है, किन्तु पमा नहीं है, उरटे दोनों की प्रमिक उत्पत्ति न होकर अधिकरण और अभाव का एक ही विशिघ्रज्ञान उत्पन्न होता है । अत: उक्त कल्पना सत्य नहीं है।