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________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [२८१ विकल्पस्य स्वातन्त्र्येण प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् , समानविपयतया प्रवृत्तिविज्ञानजनकत्वपर्यवसितस्याऽविसंवादकत्वलक्षणस्य पामाण्यस्य भ्रान्तेऽयोगाच, प्रवर्तकत्वमात्रत्वस्य स्वरदर्शिताथप्रदर्शक(१ प्रवत्तक)त्वमात्रस्य च सैनिकृष्टज्ञानान्तरे पीतशङ्खादिग्राहिज्ञानान्तरे चातिव्याप्तः । अथ तत्रापि प्राो आरोपितवस्तुनि स्वाकारे वा प्राप्याऽभेदाध्यवसायेन प्राप्यांशेन समानविषयतया प्रवर्तकरय प्रामाज्यमक्षतम् नम्-सतोऽपि विकल्पात् तदध्यवसायेन वस्तुन्येब प्रवृत्तेः, प्रवृत्तौ च प्रत्यक्षेणाभिन्नयोग-क्षेमत्वात् ' इति; अन्यदप्युक्तम्-'न ह्याभ्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽथक्रियाय विसंबायते,' इति चेत् ? न, उभयोरेकाय विषयसाम्यस्याऽसिद्धेः, लोकनबहारार्थ काल्पनिकम्य तस्याश्रयणे च तन्निबोहाय नित्यानित्यवस्तुमाहकत्वाऽऽश्रयणस्यैव युक्तसर्वसम्मत है । भौर यदि उक्तदर्शन को भ्रम माना जायगा तो प्रत्यक्ष और मनुमान इन बौद्धा. भिमत दो प्रमाणों में इसका अन्तर्भाव नहीं होगा। किन्तु उसे अतिरिक्त प्रमाण के रूप में स्वीकार करने की आपत्ति होगी, क्योंकि वह भी अशात वस्तु का प्रकाशक है और उस दर्शन से होने वाली वस्तुपापक प्रवृत्ति का संत्रादी भी है और इन्हीं दो चीजों से (अनुमान में भी! प्रामाण्य की सिद्धि होती है। [अस्पष्ट प्रतीति का अनुमान में अन्तर्भाव अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि 'उक्तप्रतीति संस्थान विशेषरूप हेतु से होती है अत: अनुमान में इसका अन्तर्भाय हो जाने से उसमें प्रमाणान्तरस्त्र की आपत्ति नहीं होगी; अनुमान अपने विषयभूत अवस्तु में वस्तु का अध्यबसायी होने से प्रवर्तक होता है, इसलिए वह भ्रान्त होता है; और भ्रान्त होने पर भी वौद्धमत में वह परम्परचा वस्तु से व्याप्त होने के कारण प्रमाण माना जाता है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्व स्वयक में अनुमान के प्रामाण्य की अन्यथा उपपत्ति न होने से विकल्पवान में स्वतन्त्ररूप से प्रामाण्य की सिद्धि की जा चुकी है। अत: उसे उक्तरीत से भ्रान्त होने पर भी प्रमाणरूप में व्यवहाय बताना समीचीन नहीं है। यह भी हातक्ष्य है कि अविसम्वादकत्वरूप प्रामाण्य समान विषयक प्रवृत्ति-विज्ञान की कारणतारूप है, मत: वह भ्रान्सज्ञान में कथमपि सम्भव नहीं है। केवल प्रवत्तक होने से भी या तो केवल स्वप्रदर्शित अर्थ का प्रवर्शक (? प्रवर्तक होने से भी यदि शान को प्रमाण माना जायगा तो सन्निकृ.माही अन्य भ्राम्तज्ञान में पर पीतरूप में शव को ग्रहण करने वाले शान में अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि एक देशस्थ रङ्ग (कलाई ) और रजत को जब क्रम से रजत भार ग्रु के रूप में ज्ञान होता है तब भी यह रजतार्थी का प्रवर्तक एवं अपने पूर्व उम्पन्न रजत और के ग्राहक प्रत्यक्ष से प्रदर्शित अर्थ का प्रदर्शक ( ! प्रवर्तक )हाता है। पीकर में शङ्खग्राही शान भी शतार्थी का प्रपत्तंक और शादी प्रत्यक्ष से प्रदर्शित अर्थ का प्रदशक( ? प्रधक होता है। अत: ऐसे शानों में प्रामाण्य की मतिष्याप्ति अनिवार्य है। [विकल्प में आरोपितवस्तुविषयता अमान्य] यदि यह कहा जाय कि-" उक्तज्ञान स्थल में भी इसके विषयभूत आरोपित यस्तु में अथवा उसके आकार में प्राप्य वस्तु के अभेद का शान होता हैं । अतः प्राप्य अंश को लेकर समान विषयक होने से प्रवर्तक होने के कारण उस हाम में भी प्रामाण्य अप्रतिहत है । कहा
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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