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________________ २४२) [शाखवार्ता स्त० ११२५ स्वात् । उक्तप्रामाण्यस्योपेक्षणीयार्थाऽव्यापकत्वात्, दृश्यप्राप्ययोरथयोः कश्चिदेकत्वं विना प्रवृत्तिप्रतिनियमानुपपत्तेश्च स्वपस्यवसायिज्ञानत्वस्यैव प्रामाण्यलक्षणस्य युक्तत्वादिति दिग् । इत्थं च दूरस्थवृक्षाविज्ञानवदस्पष्टस्यापि शाब्दस्य नाऽपामाण्यम् । न चाशेष-विशेषाध्यासित वस्तुप्रतिभासवैकल्या दप्यस्य तथात्वमाशङ्कनीयम् , प्रत्यक्षेऽपि तथात्वप्रसक्तेः । न अस्मदादिप्रत्यक्ष क्षणिकत्व-नैरात्म्याद्यशेषधर्माध्यासितसंख्योपेतघटायाकारपरिणतसमस्तपरमाणुप्रतिभासः, तथैवाऽनिश्चयात् । अत एवं "मति श्रुतयोनिबन्धो द्रव्येवसर्वपर्याये' [त.सू.१] इति समाविषयत्वम क्षज-शाब्दयोस्तवार्थसूत्रकृता प्रतिपादितम् । न चाऽवस्तुभूतसामान्यविपयत्वादस्याऽप्रामाण्यम्, एकाकारप्रतीतिहेतुत्वेन वस्तुभूतस्य तस्य व्यवस्थापितत्वादिति दिंग ।।२५।। भी गया है कि - विकल्पशान से भी वस्तु का ग्रहण होने से वस्तु में ही प्रवृत्ति होती है। अतः प्रवृत्ति के सम्बन्ध में उत्तका योगक्षम प्रत्यक्ष के तुल्य ही है। उक्त की पुष्टि में दुसरी यह भी बात कही गयी है कि प्रत्यक्ष और अनुमान से होने वाले अशनिश्चय के अनुसार प्रवृत्त होने वाले पुरुष की अर्थक्रिया में कोई विवाद नहीं होता" तो यह टीक नहीं है। क्योंकि उक्त दोनों प्रकार के झानों में पक ही प्रकार का विषय साम्य नहीं है और यदि लोकव्यवहार के हित इल्पिा किसान का कोनों में प्रामाण्य की उपपत्ति की जायगी तो उसकी अपेक्षा यह मानना अधिक युक्ति सना होगा कि ज्ञान कथञ्चित् नित्य-अनित्य उभयात्मक वस्तु का ग्राहक है । प्रतिपक्षी द्वारा कथित प्रामाण्य उपेक्षणीय अर्थ के ग्राहक ज्ञाम में अव्यान होने से भी स्वीकार्य नहीं है । दृश्य और प्राप्य अर्थ में यदि किसी भी रूप में पेश्य माना जायगा तो प्रवर्तक ज्ञान का प्रवृत्ति के प्रति प्रतिनियम की अर्थात् 'प्रवर्तकशान से गृहीत अर्थ की ही प्रवृत्ति द्वारा प्राप्ति के नियम' की उत्पत्ति न होगी । अत: परोक्तमामाण्य का परित्याग कर ज्ञान द्वारा स्त्र और पर उभय का व्यवसायात्मक ग्रहण होना ही ज्ञान का प्रामाण्य है-यह मानना ही युक्ति सङ्गत है । इस प्रकार प्रस्तुत विचार से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि दूरस्थवृक्ष आदि ज्ञान के समान ही शुरुङ्गजन्य अस्पष्टज्ञान में भी अप्रामाण्य नहीं है। [अणामाग्य मकलविशेष अग्राहकना रूप नहीं है ] यदि यह कहा आय कि- शब्दजन्य ज्ञान वस्तु के अशेष-विशंप का ग्राहक नहीं होता। अतः वह अप्रमाण है' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि अशेष-विशेष का ग्राहक न होने से यदि शाब्दज्ञान को अप्रमाण कहा जायगा तो प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि यह भी अपनी विषयभूत वस्तु को उसके अशेष विशेषरूषों के साथ ग्रहण नहीं करता, क्योंकि यह निर्विवाद है कि सामान्यजनों को जो प्रत्यक्ष होता है उनमें क्षणिकत्व, नेरान्भ्य आदि अशेष अर्थों से विशिष्ट पस सण्या युक्त घट आदि के आकार में परिणत परमाणुन मूह का मान नहीं होता। क्योंकि उसीरूप में घटादि का निश्चय सभी के लिये असिद्ध है। यही कारण है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने मति और श्रुतक्षान को सम्पूर्ण पर्यायों के ग्रहण के बिना भी सर्व द्रश्य पाही कहकर इन्द्रियजन्यज्ञान और शब्दजन्यज्ञान में समान विषयकत्व का प्रतिपादन किया है। यदि यह कहा जाय कि-'शम्दजन्यज्ञान अबस्तुभून सामान्य का ग्राहक होने से मप्रमाण है' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह सिद्ध किया जा चुका है कि एकाकार प्रतीति का ऐतु होने से सामान्य भी वस्तु ही है ||२५||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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