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________________ स्था. क. टीटा-हिन्दीषिये चन] [२८३ 'वाच्य इत्थमपोहम्तु' इत्युक्तं निराकरोतिअपोहस्यापि वाच्यत्वमुपयत्या न युज्यते । असच्चाद्वस्तुभेदेन , बुद्ध्या तस्यापि बोधनः ॥२६।। अपोहस्यापि परस्परिकल्पितरय वाच्यत्वम् =अभिप्रेयत्वम् , उपपच्या मुक्या न युध्यते । कुतः ? इत्याह-वस्तभेदेन वस्तुभिन्नतया तस्याऽसत्त्वात् , विजातीमध्यावृत्तेरपि समानपरिणतिरूपतया वस्तुवाच्यत्वपक्षपसमात, तुन्छस्य बस्तुना संघन्धाऽयोगात् । विकल्पगतार्थप्रतिबिवाच्यस्यमधिकृत्याह-बुद्धधा-तृतीयाया अदार्थत्वाद् विकरप-युद्धभितम्य, तस्य अपोहस्यापि बोधतःअद्वयवोधात् ‘भैदेनाऽसत्त्वात् ' इति योगः । न हि बोधमात्रवादिनोऽस्यव्यतिरिक्त किञ्चिदति , इति कुत इष्ट पतिभासः ! ] तमिरिकादीनां प्रतिभासावशेषोऽपि लोके बोधमात्रसामग्रीमिन्द्रकर्मसिमिरापरकेशदर्शनादिजो युज्यते, न तु बोधमानसामग्रीतः, तम्यापरमन्तरेण वैशिष्ट्याऽयोगात् ! [अपोह की शब्दवाच्यता का निरसन ] १६ वीं कालिका में अपोह के पूर्व प्रतिपादित शब्दवाच्यत्य का निराकरण किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है बौडद्वारा कल्पित अपोह की शाश्वाच्यता युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि वस्तु से भिन्न होने के कारण अपोह असत् है । यद्यपि उसे असादृष्यावृत्तिरूप माना गया है किन्तु अतट्यावृत्ति भी समान परिणामरूप ही है , अतः उसे वाच्य मानने पर वस्तु में दी शब्दान्यता की प्रति होती है । और जब अपोद अवस्तु है तो वह शब्दवाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द वस्तु है और अपोह तुच्छ है । फिर तुच्छ का वस्तु के साथ सम्बन्ध कैसे सङ्गत हो सकता है ? ! बौद्ध विद्वानों ने जो विकल्पगत अर्थप्रतिविम्य कय अपोह को शध्दवाच्य यहा है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि अर्थ प्रतिविम्वरूप अगेह भी विकल्पास्मक बुद्धि से अभिन्न है, क्योंकि अवय { बाणार्थ शून्य ) बोध से भिन्नरूप में उसकी सत्ता नहीं है, क्योंकि बोधमात्रवादी के मत में अद्वय बांध से भिन्न किसी भी वस्तु अस्तित्व नहीं है । अत: उसे शब्दवाच्य मानने पर वस्तु ही शब्दवाच्य होगी, क्योंकि उसके बुद्ध यात्मक होने में वह वस्तुरूप ही है। वस्तुस्थिति की दृष्टि से यह भी ज्ञातव्य है कि तिमिर रोग से ग्रस्त चक्षुबाले मनुष्यों को तथा अन्यानों के प्रतिभाम में इस प्रकार का अन्तर फि. मिरिक को अन्य क्षणों का भी श्यामाकार प्रतिभास होता है और अन्य जनों को श्यामवर्ण का ही श्याम कार प्रतिभास होता है । लोक में जो ऐसा विशेष दे जाता है कि र योगवाले को श्वेत फेशादि भी श्याम दिखाई देते है यह सीर्फ घोधमान कर सामना से नहीं घट सकता, किंतु उससे अतिरिक्त तथाविध कर्म , तिमिर राग और बाधभिन्न केशादि का दर्शन आदि सामग्री के मिलने से ही घर सकता है । यल बोधगात्र की सामना से यह नहीं हो सकता, क्योंकि बोधभिन्न तिमि रादि साथी के विना मिरिक के दशन में उन बाशएच असम्भव है। साथ ही यह भी दृष्य कि बांध मात्र यादी के पक्ष में पारमार्थिक बाह्यवस्तु न होने से भीलपद और उत्पलपद में जो सामानाधिकरण्य होने का बहार धोता है उसका उछेद प्रसक्त हागा । कारण, पं.से व्यवहार के लिये भिन्न भिन्न नीरूत्व और उस्परूत्व) को प्रवृत्ति
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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