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[ शानवाता० १०/ और उपमान प्रत्यक्षयोग्य अर्थ के सम्बन्ध में ही प्रवृत्त होता है। दूसरी बात यह है कि उपमान सादृश्य और सारश्य के आश्रयभूत पदार्थ के दर्शन का अविनामावी होता है जेसे मीमांसक मतानुसार अरण्य में पहुंचे हुए ग्रामीण पुरुष को गवय में गोसारश्य का दर्शन होने पर ग्रामस्थित गौ में गवयसादृश्य का प्रहण उपमान प्रमाण से होता है। नैयायिक मतानुसार भी उपमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नैयायिकों के मत में उपमान प्रमाण पदवाच्यत्व का ही ग्राहक होता है, जैसे अपने ग्राम में अरण्यागत पुरुष के वाक्य से 'गोसदृशो गवयगोलश गवयपदद्वाच्य है यह जानकर, अरण्य में गये प्रामीण पुरुप को गवय में गोसारश्य का दर्शन होने पर 'गोसटश गवयपदधाच्य है' इस पूर्वज्ञात वाक्यार्थ के स्मरण से 'गषय: गश्यपदधाच्य:गवय गषयपदयाच्य है' इसप्रकार गधय में गचयपदवाच्यत्य का ग्रहण उपमान प्रमाण मारा उपपन्न होता है । इसप्रकार जब मीमांसक के अनुसार उपमान प्रमाण का विषय सादृश्य है और न्याय मत के अनुसार उस का विश्व पदधाच्यत्व है तब उन दोनों से भिन्न सर्वश में उस का उपयोग बढे दूर की बात है । फलत; उपमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि असंभव है ॥ ६ ॥
मूलम्-नार्थापत्यापि सर्वोऽर्थस्तं विनाऽप्युपपद्यते ।
प्रमाणपश्चकाऽवृत्तेस्तत्राऽभावप्रमाणता ॥ ४ ॥ अर्थापत्त्यापि न सर्वज्ञो गृह्यते, यतः सर्वोऽर्थः=धर्मदेशनादि तं विनापि सर्वज्ञं विनापि उपपद्यते बुद्धादीनां स्वघ्नोपलब्धार्थोपदेशतुश्यस्य व्यामोहपूर्वकस्य, मन्वादीनां च सामाध्ययनसमासादितव्युत्पत्तिविशेषाऽऽकलितनिखिलवेदार्थानां सम्यग्ज्ञानपूर्वकस्योपदेशस्योपपत्तेः । तदिदमुक्त भट्टेन
*" सर्वज्ञो दृश्यते तावद् नेदानीमस्मदादिभिः । दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिवा योऽनुमापयेत् ॥ १ ॥ न चागम विधिः कश्चिद् नित्यः सर्वज्ञबोधकः । न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकरप्यते ।। २ ॥ तथान्यार्थप्रघानेस्तैस्तदस्तित्व विधीयते । न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यरबोधितः ॥ ३ ॥ अनादिरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण स्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ! ॥ ४ ॥ अथ तवचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतीयते । प्रकल्प्येत कर्थ सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ? ।। ५ ॥ सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता । कथं तदुभयं सिद्धयेत् सिद्धमूलान्तराहते ? |॥ ६ ॥ असर्वज्ञ-प्रणीतातु वचनाद् मूलवजितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात् किं न जानते ! ॥ ७ ॥ सर्वज्ञसदृशं कश्चिद् यदि पश्येम संप्रति ! उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् ॥ ८ ॥ उपदेशो हि बुद्धादेधर्माऽधर्मादिगोचरः । अन्यथा नोपपद्येत सार्वयं यदि नो भवेत् ॥ ९ ॥ बुद्धादयो ह्यवेद
* श्लोकात्तिके १-१-२ श्लोक ११७ तः, नत्त्व संग्रहे च ३१८५ तः दृष्टम्याः श्लोका इमे ।