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स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
मूलम्:-न चागमेन, यदसौ विध्यादिप्रतिपादकः ।
___ अप्रत्यक्षत्वतो नैवोपमानेनापि गम्यते ।।३।। ___न चागमेन 'सर्वतो गृपते' इत्यनुपङ्गः । यत् यस्मात् असौ-आगमः विध्यादिप्रतिपादकः विधिनिषेधवोधकः । अयं :-- अनित्यादामाद नमितिः याः, नियाद या ! | नायः, अन्योन्याश्रयात् ; सर्वज्ञसिद्धी हि कृत्रिमस्यागमस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्यसिद्धिः, तसिद्धौ च ततस्तस्सिद्धिः । न चाऽसर्बज्ञप्रणीत आगमः प्रमाणं युज्यते, अन्यथा स्ववचनादेव सरिसद्धिः स्यादिति । नापि द्वितीयः, नित्यस्यागमस्य कार्य पवार्थे प्रामाण्यव्यवस्थापनेन सर्वज्ञप्रतिपादने तस्याऽप्रमाणत्वात् , यश्च हिरण्यगर्भ प्रकृत्य-'स सर्ववित् स लोकचित्' इत्यादिरागमः, तस्यापि कर्मार्थवादप्रधानत्वेन सफलज्ञविधायकत्वानुपपत्तेः । नापि सफलज्ञस्यानुवादकोऽसौ, पूर्वमन्यैः प्रमाणैरवोधितस्य तस्यानुवदितुमशक्यत्वादिति भावः । अप्रत्यक्षस्वतः कारणात् , नेवोपमानेनापि गम्यते सर्वज्ञः, तस्य सादृश्यविषयत्वात् , सादृश्याश्रयदर्शननान्तरीयकत्वाच्च; पदवाच्यत्यविषयकस्बे च तस्यानोपयोग एव दूरे ।। ३ ।।
[ आगमप्रमाण से सर्वशसिद्धि अशक्य ] ___ आगम-शाम से भी सर्घश की सिद्रि नहीं हो सकती क्योंकि आगम विधि और निषेध का ही बोधक होता है । अतः सर्वज्ञ विधि-निषेधात्मक न होने से आगम से गृहीत नहीं हो सकता । साथ ही यह भी विचारणीय है कि सर्वज्ञ की सिद्धि अनित्य आगम से होगी या नित्य मागम से ? (१) इन में प्रथम पन अन्योन्याश्रय होने से ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि सर्व सिद्ध होने पर अनित्य आगम में, सईझ प्रणीत होने से प्रामाण्य की सिद्धि होगी और प्रामाण्य की सिद्धि हो जाने पर ही आगम से सर्वश की सिद्धि होगी, अतः अनित्य भागम से सर्वज्ञ की सिद्धि मानने में अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। असर्वश प्रणीत आगम को भी सर्वश की सिद्धि में प्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि यदि अन्य असर्वश का घचन सर्वक्ष का साधक होगा तो वादी के वचन से भी उस की सिद्धि हो जाने की प्रसक्ति होगी। (२) मित्यागम से सर्वज्ञ की सिद्रि होती है यह द्वितीय पक्ष भी ग्राश नहीं हो सकता क्योंकि नित्य आगम (वेद तो कर्तव्य अर्थ में ही प्रमाण होता है-इस तथ्य का व्यवस्थापन हो चकने से सर्वश के प्रतिपादन में वह प्रमाण नहीं हो सकता। हिरण्यगर्भ के अधिकार में स सर्ववित् : लोकबित् वह सर्वश है वह लोकश है, ' इस प्रकारका जो आगम (वेद) उपलब्ध होता है वह भी आगमप्रतिपाद्य कर्म का अर्थवादरूप है अतः यह भी सर्वश का साधक नहीं हो सकता । उक्त आगम सर्वश का अनुवादक भी नहीं हो सकता क्योंकि अन्य प्रमाणों से सर्वज्ञ अज्ञात है, अत: उस का अनुवाद असम्भव है 1
[ उपमानप्रमाण से सर्वसिद्धि का असम्भव ] उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सर्वक अप्रत्यक्ष है