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________________ [ शासवार्ता १०/२ प्रत्यक्षात्मक अनेक मान पियकाष का सब कि शायगा तो बाध होगा क्योंकि कोई पदार्थ अनेक प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का विषय नहीं होता किन्तु एक पक पदार्थ पक्क पक प्रत्यक्षकान का ही विषय होता है । यदि इस बाध दोष का वारणा यह कह कर किया जाय कि 'पदार्थों में किसी एक काल में किसी पकपुरुष के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषयत्व न होने पर भी कालभेव और पुरुषभेव से उन में अनेक प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का विषयत्व विद्यमान होने से बाध नहीं हो सकता'-तो साध्य की ऐसी व्याख्या करने पर सिद्धसाधन होगा क्योंकि सभी पदार्थ में उक्त रीति से व्याख्यात साध्य सिद्ध है। [प्रमेयत्व हेतु में असिद्धि आदि दोष ] प्रमेयत्व हेतु में भी विकल्पपूर्वक विचार करने पर दोष की प्रसक्ति अनिवार्य है, जैसे-प्रमेयत्व का अर्थ यदि प्रत्यक्षविषयत्व किया जाय तो सर्वसिद्धि के पूर्व सब पदार्थों में प्रत्यक्षविषयस्य का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि सभी पदार्थों में किसी एक व्यक्ति के प्रत्यक्ष की विषयता सिद्ध नहीं है, क्योंकि सब पदार्थो में अतीन्द्रिय पदार्थ भी अन्तर्भूत है। और यदि अनुमितिप्रमाविषयत्वरूप प्रमेयत्व को हेतु किया जायगा तो जिस पदार्थ का सदा प्रत्यक्ष ही होता हैं मनुमिति नहीं होती जैसे मनुष्य का अपना हाथ-पैर एवं शाकगम्य स्वर्गनरक आदि, उस में हेतु का अभाव होने से भागासिद्धि होगी। यदि प्रमात्वसामान्य से प्रत्यक्ष-अनुमिति-शाम्दयोध आदि का संग्रह कर के उस दोषों का उद्धार करने का प्रयास किया जाय तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष-अनुमिति आदि में अत्यन्त लक्षण्य होने से मन में एक सामान्य तत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि अस्यम्त विलक्षण मों में भी सामान्य की सिद्धि मानी जायगी तो घट-पट आदि में एक सामान्य की सिद्धि का अतिप्रसंग होगा । यदि यह कहा जाय कि-'घर-पर आदि में पृथिवीरव प्रख्यत्व आदि जैसे पक जाति रहती है पर्ष प्रत्यक्ष, अनुमिति आदि में जैसे शामत्व-गुणत्व आदि एक जाति रहती है उसी प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमिति आदि में एक प्रभावजाति भी रह सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अत्यन्त विलक्षण व्यक्तियों में एक सामान्य म हो सकने की जो बात कही गई है वह ऐसी जातियों के सम्बन्ध में है जो जाति कार्यमात्रवृति होती है। पृथिवीरव, द्रव्यत्व पधं झामत्व गुणत्व आदि जातियों कार्यमात्रवृत्ति जातियों नहीं हैं अत: घे जातियाँ अस्यम्त विलक्षण व्यक्तियों में रह सकती हैं किन्तु प्रमावसाति कार्यमात्रवृत्ति है, अतः उसे जाति मानने पर वह घटत्यादि जातियों के समान अत्यन्त विलक्षणव्यक्तियों में नहीं रह सकती है। अस एव इन्द्रिय, लिङ्ग आदि विलक्षण कारणों से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष-अनुमिति आदि का प्रमात्वरूप से संग्रह कर के भी प्रमेयस्थ हेतु का समर्थन नहीं किया जा सकता । इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि प्रमात्व 'तद्धविशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारत्व'रूप होने से प्रकार विशेष और धर्मविशेष से घटित होने के कारण अननुगत है अतः उस में किसी पक के द्वारा हेतु के शरीर में प्रभा का प्रवेश करने पर भागासिद्धि होगी और सभी प्रमाओं का हेसु के शरीर में प्रवेश करने पर हेतु का स्वरूप यावत्प्रमाविषयत्व में पर्यषसित होगा, अतः स्वरूपासिद्धि होगी क्योंकि यावत्प्रमाविषयत्व किसी पदार्थ में नहीं रहता ॥२॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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