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स्या, क, टीका-हिन्दी विवेसन
[प्रत्यक्ष और अनुमान से सर्वज्ञसिद्धि असंभव ] __ सर्वज्ञाभाष के साधनार्थ प्रस्तुत किये गये प्रमाणसामान्याभाष के समर्थन के लिये नितीय कारिका में प्रमाणविशेषाभावरूप हेतु का विधेशन किया गश है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
प्रत्यक्षममाण से सर्वज्ञ की सिद्धि कथमपि नहीं हो सकती, क्योंकि यह स्व. भावत: सम्बन्ध में आये हुए रूपादि प्रतिनियत विषयों में ही प्रवृत्त होता है । अतः अन्य सन्तान में विद्यमान संवेदनमान को भी ग्रहण करने में पद असमर्थ है और जब उस की यह स्थिति है तष अतीत-अनागत-वर्तमान सूक्ष्म-व्ययहित आदि अनन्त स्वभाव से युक्त सम्पूर्ण पदार्थों के प्रत्यक्षानुभव से विशिष्ट असत्पुरुषविशेष को प्रहण करने में घातले समर्थ हो सकता है?
अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा कोई लिङ्ग देखने में नहीं आता जिस में सर्वज्ञ का अविमाभाष यानी सर्वक की व्यानि गृहीत हो सके। साथ ही यह भी निर्विवाद है कि सर्वज्ञ की सिद्धि न होने से सर्वज्ञसाध्यक अथवा सर्वपक्षक कोई भी अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम अनुमान के लिये हेतु में अपेक्षित साध्य-व्यासि का निर्णय नहीं हो सकता, और दूसरे अनुमान के लिये, अपेक्षित हेतु में पक्षमता का निक्षय नहीं हो सकता |
[किसी भी प्रकार अनुमान से सर्वज्ञसिद्धि अशक्य ] दूसरी बात यह है कि अनुमान से सर्वज्ञ का साधन करने का प्रयास दो रूपों में ही किया जा सकता है । एक यह कि सर्वज्ञ का विशेषरूप से साधम किया माय । जैसे-इसमकार अनुमान किया जाय कि 'अर्हत् सर्वज्ञ हैं क्योंकि सिर हैं, जो सर्वज्ञ नहीं होता पद सिद्ध नहीं होता जैसे संसारी मानव' | दूसरा यह कि सर्व का 'अविशेषसामान्य रूप से साधन किया जाय, जैसे इसप्रकार अनुमान किया जाग कि 'प्रत्यक्षत्व सर्व विषयकत्व का समानाधिकरण है क्योंकि वह अनुमिस्यादि में अवृत्ति तथा ज्ञानत्व की व्याप्यजाति है, मी सर्वविषयकत्व का समानाधिकरण नहीं होता यह उक्त जातिरूप नहीं होता, जैसे अनुमितियादि और घटत्वादि जाति । उक्त दोनों अनुमानो में प्रथम में व्यभिचार है क्योंकि सिद्धत्व हेतु अन्य वादियों को मान्य अलर्वशासिद्ध में सर्वशरथ का व्यभिचारी है। दूसरे अनुमान में अर्थान्तरदोष है क्योंकि अहंत से भिनपुरुष के ज्ञान में, असे कि मैयायिकाभिमत ईश्वर के ज्ञान में, प्रत्यक्षत्व में सर्वविषयकत्व का समानाभिकरण्य मान लेने से उक्त अनुमान के संपन्न हो जाने पर अनाभिमत सर्वज्ञ 'अईस्' की सिद्धि नहीं हो सकती।
" सब पदार्थ किसी पुरुष के प्रत्यक्षज्ञान के विषय है क्योकि प्रमेय हैं, जो अमेय होता है वह किसी पुरुष के प्रत्यक्ष का विषय होता है। जैसे अग्नि आदि", इल अनुमान से भी सर्वश की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों के साक्षात्कर्ता किसी पक पुरुष के प्रत्यक्षज्ञान विषयस्थ को साध्य करने पर दृष्टान्त में साध्य का अभाष दोगा क्योंकि अग्नि आदि रशाम्त उक्त प्रकार के किसी पकपुरुष के प्रत्यक्षज्ञान के विषय नहीं है क्योंकि उक्त साध्य मप्रसित है। सस्तुतः इस दोष के प्रदर्शन का तात्पर्य साध्याऽप्रसिद्धि के प्रदर्शन में है। यदि प्रतिनियतविषयक