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[ शामवार्ता स्त० १०/२८
प्राप्यकारित्वे च चक्षुषः शाखा - चन्द्रमसोर्युगपद् महानुपपत्तिः, युगपदुभयसंयोगाभावात् । न च 'तिर्यग्भागावस्थितयोः शाखा- कदमसोर्युगपद संयोगोपपत्तिः' इति वर्धमानोक्तं निरवद्यम्, ऊर्ध्व प्रसृतानामेव नयनरश्मीनां तयोस्तिर्यग्भागेऽवस्था नोपपत्तेरूर्वस्थित वस्तुग्रहणप्रसङ्गात् । न चामभागावच्छेदेन संयुक्तस्यैव चक्षुषो ग्राहकत्वम्, अत एव न नयनस्थिताञ्जनादिमहोऽपीति नायें प्रसङ्ग इति वाच्यम् तथापि तावत्पर्यन्तं प्रयतस्थान्तरालिकवस्त्वन्तरग्रहणमसङ्गात्, संनिहित विमुच्याऽसंनिहितसंयोगानुपपत्तेः, अनन्यगत्या वेगादिविशेषात् विनैव संनिकृष्टदेशविशेष संयोगं विप्रकृष्टदेशसंयोगोपपादने चानन्यगत्या देशविशेषस्य तत्तच्चाक्षुषहेतुत्वमस्तु, अनन्तचक्षुः क्रिया संयोग
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अन्धकार के मध्य में अवस्थित आलोकस्थ वस्तु के साक्षात्कार की अनुपपत्ति नहीं होती क्योंकि जिस आलोक के चारों ओर अन्धकार है उस आलोक में स्थित वस्तु में अन्धकार की व्यामि न होने से उस का चाक्षुष अन्धकार से अवरुद्ध नहीं हो सकता । यह भी ध्यान देने योग्य हैं कि वस्तुतः शानावरणीयकर्म ही ज्ञान का प्रतिबन्धक होता है । प्रतिबन्धिका शक्ति वस्तुत: उसी में होती है । कुड, अन्धकार आदि वाह्यस्यवधायक तो उस शक्ति के उद्बोधक होने से प्रतिबन्धक कहे जाते हैं। अतः चक्षु के अप्राप्यकारित्व पक्ष में कोई आपत्ति या अनुपपत्ति नहीं है ।
[ प्राप्यकारितापक्ष में एक साथ शाखा - चन्द्र ग्रहणापत्ति ]
चक्षु के प्राप्यकारित्यपक्ष में एक और दोष है। यह है, वृक्ष की शाखा और उस से ऊपर बहुत दूर अन्तरिक्ष में स्थित चन्द्रस के कृष्पत् को अनुपपति कार्वजनीन अनुभव है कि जब कोई मनुष्य रात में वृक्ष की शाखा की और आँख डालता है तब उसे ती भाव में अवस्थित शाखा और चन्द्रमा साथ ही दीख पड़ते हैं । यह बात चक्षु को अप्राप्यकारी मानने पर तो बन सकती है पर प्राप्यकारी मानने पर नहीं बन सकती, क्योंकि शाखा के समीपस्थ होने में उस के साथ चक्षु का संयोग पहले होगा और दूरस्थ चन्द्रमा के साथ बाद में होगा। अतः शाखा का प्रत्यक्ष पहले और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष बाद में होना चाहिये न कि एक साथ । इस के उत्तर में "वर्धमान' का कहना है कि शाखा और चन्द्रमा मीधी रेखा अवस्थित नहीं होते किन्तु तिर्यक तिरछे अवस्थित होते हैं. अतः चक्षु की किसी किरण का शाखा साथ और किसी अन्य किरण का चन्द्रमा के साथ युगपत संयोग सम्भय होने से दोनों के युगपद ग्रहण में कोई बाधा नहीं है । शाखा यद्यपि सम्मिलीत है और चन्द्रमा ऊ है तथापि मध्य में किरण की गति का कोई अवरोधक न होने से समान समय में दोनों तक चक्षु की किरण पहुँचने में कोई असंगति नहीं है । किन्तु यह उत्तर निर्दोष नहीं है क्योंकि जब शाखा और चन्द्रमा का तिर्यक अवस्थान होगा तब शाखा के साथ चक्षुकिरण के संयोग के समय चन्द्रमा के साथ चक्षुकिरण का संयोग सम्भव ही नहीं हो सकता, क्योंकि चक्षु की किरणें जब शाखा की और फैलती हैं तब उन का फैलाव शाखा के उपर ही होता है न कि पार्श्व में, अत: उस समय चन्द्रमा का ग्रहणन होकर शाखा के ऊपर अवस्थित अन्य स्तुओं के ग्रहण की आपत्ति होगी । अथवा यों कहा जा सकता है कि शाखा और चन्द्रमा का तिर्यक् अवस्थान मान कर उन के साथ चक्षु की विभिन्न किरणों के युगपत् १. गंगेोपाध्याय का पुत्र वर्धमानवा |