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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ९७ संयोग की उपपसि द्वारा दोनों के युगपत् ग्रहण की उपपत्ति कर सकते हैं किंतु ऐसा हो जाने पर भी ऊपर फैलनेवाली चक्षफिरणों को चन्द्र के उपर अवस्थित वस्तुओं के साथ भी संयोग होने से उन वस्तुओं के भी ग्रहण की आपत्ति होगी किन्तु चन्द्र के ऊपर स्थित वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता है। [एक आपत्ति का परिहार करने पर अन्य आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'ग्राम द्रव्य के अग्रभाग से संयुक्त चक्ष ही द्रव्य का ग्राहक होता है, इसीलिये नेवस्थित अन आदि का चाक्षर पक्ष नहीं होता, क्योंकि नेत्र के अधिष्टान से उपर की ओर निर्गत ने किरणें अक्षन के अप्रभाग से संयुक्त न होकर उस के पृष्ठभाग से ही सम्बद्ध हो सकती हैं। अत, जैसे अञ्जन के अग्रभाग से संयुक्त न होने के कारण चक्षु से नेत्र स्थित अञ्जन का ग्रहण नहीं होता उसी प्रकार चक्षु चन्नमा के ऊपर अवस्थित द्रव्यों के अग्रभाग से संयुक्त न होने के कारण उन के पृष्ठभाग से संयुक्त भी अक्षु से उन का ग्रहण न होना ही युक्तिसंगत होने से उन के ग्रहण की आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह कथन टीक नहीं है क्योंकि इस कथन से उक्त पफ आपत्ति का परिहार हो जाने पर भी वक्ष के प्राप्यकारित्वपक्ष में होनेवाली अन्य आपत्तियों का परिहार नहीं हो सकता । जैसे चक्षु को प्राप्यकारी मानने पर व्रष्टा के नेत्र और द्रष्टव्य शाखा आदि के मध्य जिसने द्रव्य है उन सभी के साथ चश्नु का सयोग होने के कारण उन सभी वन्यों के चाक्षुष की आपत्ति होगी। चक्ष को अपायकारी माननेवाले जनमत में यह आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि द्रष्टा के नत्र तथा शाखा आदि के मध्य अवस्थित द्रव्यों के. चाशुषज्ञान के आवरण का श्योपशमरूप कारण सन्निहित नहीं रहता । उक्त आपत्ति के परिहारार्थ यह नहीं कहा जा सकता कि मध्यस्थित द्रव्यों के साथ चक्षु का संयोग ही नहीं होता, क्योंकि मध्यस्थित द्रव्य शाखा आदि की अपेक्षा समीपस्थ होते हैं अतः यह संभव नहीं हो सकता कि समीपस्थ द्रव्यों के साथ दक्ष का संयोग न हो और दूरस्थ शाखा आदि के साथ हो जाय । यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मध्यस्थित द्रव्यों के चाक्षुपज्ञान की आपत्ति के परिहार का कोई अन्य उपाय न होने से यह माना जा सकता है कि बैगातिशय के कारण नेत्र किरण मध्य के द्रध्यों में संयुक्त न होकर दूर तक फैल जाती हैं । अतः दृरस्थ द्रव्यों से ही उन का संयोग होता है। क्योंकि इस की अपेक्षा यह मानना अधिक उचित है कि जिस देश में स्थितद्रव्य का चाश्रुप आनुभविक है, विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुष के प्रति वृत्तित्य सम्बन्ध से बह देश है। कारण है । यह कार्य कारणभाष भी मध्यदेशस्थित द्रव्यों के चाशुपक्षान की आपत्ति के परिहार का अन्य किसी उचित उपाय के न होने से मान्य किया जा सकता है। इस कार्यकारणभाव को मानने का औचित्य इमलिये हैं कि प्रत्य कानुष में चक्षुद्रव्यसंयोग को कारण मानने पर चर की क्रिया, पूर्वस्थान से घच का विभाग, उस स्थान के साथ चक्षुर्मयोग का नाश, ग्राह्यद्रयरूप उत्तर देश के साथ चक्षुसंयाग, चक्षु की क्रिया का नाश इन सभी पदार्थों के बीच बहुतर कार्यकारणभाव की कल्पना में अत्यधिक गौरव है और वृत्तिन्य सम्बन्ध से देशविशेष को चाप-प्रत्यक्ष का कारण मानने में उक्त. अनन्त कार्यकारणभाषों की कल्पना को आयर यकता न होने से लायम है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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