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[शाच्यार्ताः स्त. २०१८ विभाग-तत्कार्यकारणभावाद्यकरुपनलाघवात् । अस्तु वा नयनप्राप्तिनियामकं विशिष्टाभिमुख्यमेव तत्कानियामकम् । एतेन 'क्रमिकोमयसंयोगवता चक्षुषा शाखा- चन्द्रमसोणे कालसनिकर्षाद् योगपद्याभिमानः' इत्यपि निरस्तम् , चन्द्रज्ञानानुव्यवसायसमये शाखाज्ञानस्य नष्टत्वेन 'शाखाचन्द्रौ साक्षात्करोमि' इत्यनुव्यबसा यानुपपत्तेश्च । न च ऋमिकतदुभयजनितसंस्काराभ्यां जनितायां समूहालाम्बनस्मृतावेवानुभवत्वारोपात् तथाऽनुव्यवसाय इति सांप्रतम् । साहगारोपादिकरूपनायां महागौरवादिति । अधिकं ज्ञानार्णवादौ ।
तदेवं भावांश इवाभावांशेऽपि विषयग्रहणपरिणामरूपभावेन्द्रियस्य ग्राह्यतापरिणामाख्ययोग्यता
उक्त उत्तर के अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि, नेत्र के जिस विशिष्ट आभिमुख्य से नेत्रप्राप्ति-नेघसंयोग का नियमन होता है वही, नेत्रसंयोग से उत्पादनीयतया अभिमत द्रव्यचाक्षुपरूप कार्य का नियामक है। अत: नेत्र के विशिष्ट आभिमुख्य से ही द्रव्य के चाक्षुष की उपपत्ति हो जाने से तदर्थ द्रष्टय द्रष्य के साथ नेत्रसंयोग की कल्पना अनावश्यक पर्व मनुचित है।
[शाखा-चन्द्र के एक साथ ग्रहण का समर्थन] चक्षु को प्राप्यकारी मानने पर शाखा और चन्द्रमा के युगपद् ग्रहण की जो अनुपपत्ति बताई गई उस के उत्तर में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि-'शाखा और चन्द्रमा के साथ चष्ठ का युगपत् संयोग न होने के कारण उन का युगपद् प्रहण होता ही नहीं किन्नु दोनों प्रत्यक्षों के श्रीच अत्यन्त स्वरूप काल का ही अन्तर होने से उन में योगपच-सहोत्पन्नता का भ्रम होता है। अत: अब शाखा और चन्द्रमा का युगपत् प्रत्यक्ष ही होता नहीं तो उस की अनुः पपत्ति बता कर चक्षु के प्राप्यकारित्वपक्ष का खण्डन करना अयुक्त है'-किन्तु यह कथन असंगत है, क्योंकि जब शाखा और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष कम से होगा तब चन्द्रदर्शन के अनु. व्यवमाय के समय चन्द्रदर्शन से पूर्वोल्पन्न शाखादर्शन का नाश हो जाने से 'शाखा-चन्द्रौ साक्षात्करोभि शाखा और चन्द्र को देवता हूँ' इस प्रकार चन्द्रदर्शन के अनुव्यवसाय के साथ शाखादर्शन का अनुव्यवसाय न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि-' उक्त अनुव्यवसाय शाखा और स्वन्ट्र के दर्शन का अनुव्यवसाय नहीं है किन्तु दोनों दर्शनों से क्रमोत्पन्न दो संस्कारों से उत्पन्न शाखा और चन्द्र के समूहालम्बन स्मरणरूप अनुव्यवसाय है जो स्मरण को स्मरणत्यरूप से विषय न कर अनुभवत्य-माक्षास्कारत्वरूप से विषय करता है। तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एसा मानने में उक्त समुहालम्बन स्मरण की कल्पना, उसमें स्मरणत्वमान के प्रतिबन्धक की कल्पना और साक्षात्कारत्व के आरोपजनक दोष की कल्पना आदि के आवश्यक होने से महान गौग्य है।
इस विषय के ऊपर और विस्तृत विचार व्यारूशकार के 'शानार्णव' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है।
[अभावांश का ग्रहण इन्द्रिय से] उक्त रीति से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि इन्द्रिय से अभाव का ग्रहण दुर्घट नहीं है, क्योंकि जैसे भाघ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अभाय के