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स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन संबन्धसत्त्वादिन्द्रियेण तद्ग्रहणं न दुर्घटम् | यच्चोक्तम्-'प्रतियोगिग्रहणपरिणामाभावरूपं तदन्यवस्तुविज्ञानरूप वाऽभावास्य प्रमाणभेष्टव्यम्' इति-तत्र पटिष्टम् , आद्यस्य समुद्रोदक पलपरिमाणेनानैकान्तिकत्वात् ; द्वितीयस्य च विविक्ताधिकरणज्ञानरूपस्यन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्नेन प्रत्यक्षत्वादेव । यदप्युक्तम् 'न चैवमभावज्ञाने' इत्यादि....तदप्ययुक्तम् , प्रतियोग्यधिकरणसंसृष्टताऽसंसृष्टताभ्यामधिकरणग्रहणप्रतियोगिस्मरणयोरपेक्षायां बाधात्, प्रत्यक्षेणैब सिद्धौ वैयथ्याच्चः अन्याऽसंसृष्टतादिग्रहेऽभावव्यापारे
साथ भी इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है । एस सम्बन्ध को यों समझा जा सकता है-इनिध्य दो प्रकार की होती हैं-द्रव्यइन्द्रिय और भावइन्द्रिय । चक्षु आदि द्रव्यइन्द्रिय है और विषयग्रहणानुकूल उन का परिणाम भावइन्ट्रिय है । भाइन्द्रिय के द्वारा ही द्रव्यइन्ट्रिय का सम्बन्ध होता है। वह सम्बन्ध संयोग आदिरूप नहीं हैं किंत ग्राद्यपदार्थ का ग्राहयतापरिणामरूप है । इस ग्राह्यनिष्ठ परिणाम को ही इन्द्रिय से गृहीत होने की योग्यता कही जाती है । यह प्राय की योग्यता ही ग्राह्यपदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध है । ग्राह्य के साथ इन्द्रिय का यह सम्बन्ध जसे मात्र के माथ है उसी प्रकार अभाव के साथ भी है। कहने का आशय यह है कि चक्षु आदि इन्द्रिय में जैसे भावात्मकरिषय यहणरूप परिणाम होता है और इस परिणाम से भावात्मकविषय में ग्राह्यतापरिणाम होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय में अभामा मक विषय का भी ग्रहण परिणाम और उक्त परिणाम से अभावात्मक विषय में ग्राश्यतापरिणाम होता है। अभावनिष्ठ वहीं ग्राश्यतापरिणाम योग्यतारूप हैं और वही ग्राह्यनिष्ठ योग्यता यह इन्द्रिय के. साथ ग्रामविषय के सम्बन्ध का काम करती है । तात्पय, ग्राह्य उस योग्यतारूप मबंध से इन्द्रियसंघद्ध होता है । अत: भाव के समान अभाष भी उक्त योग्यतारूप सम्बन्ध से इन्द्रियसम्बद्ध होने के कारण इन्द्रिय से गृहीत हो सकता है। इमलिये अभावग्रहण के लिये अनुपलब्धिरूप अभाव को पृथक् प्रमाण मानना अनावश्यक है।
अभावप्रमाणवादी की ओर से जो यह कहा गया कि-'प्रतियोगी के ग्रहणस्य इन्द्रिय परिणाम के अभाव को अथवा प्रतियोगी से भिन्न अधिकरणात्मक वस्तु के ज्ञान को अभावप्रमाण मानना आवश्यक है क्योंकि उस के बिना किसी अन्य प्रमाण से अभावग्रहण सम्भत्र नहीं है।' -वह टीक नहीं है क्योंकि विषय ग्रहण रूप परिणाम का अभाव विषय के अभावग्रहण का व्यभिचारी होने से अभाव में प्रमाण नहीं हो सकता । -समुद्र के उदकविन्दु के परिणाम का ग्रहणात्मक इन्द्रियपरिणाम का अभाव होने पर भी उस का अभाव नहीं होना हन्द्रिय से गृहीत न होने पर भी सत्र के जलविन्दुओं में पलपरिमाण का अभाव नहीं होता। किन्तु सूक्ष्म जलबिन्दु के समान उस का परिमाण अपना अस्निल धारण करता ही है। अत: विषयानु पलब्धि विषयाभाव के ग्राहक प्रमाणरूप में मान्य नहीं हो सकती।
प्रतियोगी से अन्य अधिकरणात्मकवस्तु के ज्ञान को भी अभावरूप अतिषिक्त प्रमा के रूप में स्वीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान करने से अधिकग्णाज्ञान प्रत्यक्षरूप है । अत: उस से अभाव को ग्राह्य मानने पर अभाव की प्रत्यक्षग्राह्यता सिद्ध होगी न कि अभावरूप भिन्नप्रमाण की मान्यता ।
[अभाव प्रमाण न मानने पर भी अपेक्षा की उपपति] अभाव को अतिरिक्त प्रमाण सिद्ध करने के लिये जो यह बात कही गई कि-"अभावज्ञान