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[ शाखवार्ताः म्त० ११३० क्षणिकत्वानुमानात् परस्याऽक्षणिकत्वसमारोपस्याऽप्यनिवृत्यापत्तेः। यदि च बहिराध्यवसायिशाब्दविकरुपप्रतिबन्धकविशेषदर्शने लोकवासनाया उत्तेजकत्वं स्वीक्रियते, अत एव लोकवासनाविरहिणां विशेषदर्शिनां योगिनां न पूर्वक्षणबलायातोऽपीदृशविकल्प इतीण्यते, तदा लाघवादस्य बहिविषयेऽभ्रान्तत्वमेव करप्यताम् , किंतमा भ्रान्तम्बम्ग, दायमा विदोघे नत्प्रतिबन्धकोत्तेजकत्वादेश्च कल्पनया ! इत्यादि सूक्ष्मधिया विभावनीयम् ॥ २१॥
तदेवं सिद्धः शब्दाऽर्थयोः संबन्धः, तत्सिद्धौ च निराबाधा सर्वज्ञेनाभिध्यक्तादागमाद धर्माऽधर्मव्यवस्था, ततश्च 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मुक्तिः' इत्यत्र नयमतमेदजनित वार्तान्तरमुत्थापयतिज्ञानादेव नियोगेन सिद्धिमिच्छन्ति केचन । अन्ये क्रियात एवेति द्वाभ्यामन्ये विचक्षणाः ॥३०॥
ज्ञानादेव केवलात् नियोगेन अवश्यभायेन, सिद्धिम् =मुक्तिम् इच्छन्ति केचन-ज्ञानवादिनः। अन्ये क्रियावादिनः, ‘क्रियात एघ केवलाया मुक्तिः' इतीच्छन्ति । अन्ये-ज्ञान-क्रियावादिनः, विचक्षणाः-उभयसमर्थनाद यथावस्थितबुद्धयः द्वाभ्यां समुदिताभ्यां ज्ञान-क्रियाभ्याम् सिद्धिमिच्छन्ति ।। ३० ।।
यदि यह कहा जाय कि-'ब्राह्मअर्थ को विषय करनेवाले शब्दजन्य विकल्प में विशेष. दर्शन के प्रतिबन्धक होने पर भी लोकवासना उत्तेजक है । अर्थात् टोकत्रासनाविरह विशिष्ट बुद्धन्धाकार का दर्शन शब्दाधीन बायार्थ के विकल्पबांध में प्रति कारण है कि जिस से योगियों में न्दोकवासना न होने के कारण उन्हें बुद्धयाकार में बाधार्थ का अध्यास नहीं होता तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दजन्य विकल्प को वाह्यार्थविषय में अभ्रान्त मार लेने में प्लाधव है । उस के बदले उसे भ्रान्त मानने में तथा उसकी उत्पत्ति को सम्भव बनाने के लिए उसके प्रतिबन्धक में लोकवासना को उत्तक मानने में गौरव है । यह सब मृक्षमता के साथ विचारणीय है, ! २९ ॥ शब्दार्थ सम्बन्ध चर्चा समान)
उक्त विचार के फल स्वरूप यह सिद्ध होता है कि शब्द और अर्थ में सम्बन्ध है । इस लिप सर्वेशद्वारा उपदिष्ट अगम संघ अधर्म की व्यवस्था में कोई वाधा माह ज्ञान और क्रिया से मुक्ति होती है। इस विषय में जय मम्बन्धी मतभेद से जो तथ्य निर्गत होता है प्रस्तुत ३० वीं कारिका में उसे प्रदर्शित किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है__ कुछ ज्ञानयादि लोगों का यह अभिप्राय है कि केवल ज्ञानमात्र से मुकि निश्चित ही होती है 1 और अन्य क्रियावादी लोगों का अभिमाय है कि केवल क्रिया से ही मुकि होती है। तथा ज्ञान-निया उभयवादियों का अभिप्राय हैं कि ज्ञान और क्रिया दोनों के अवलम्बन करने से मुक्ति होती हैं । यह (तीसरा) अभिप्राय रखने वाले विद्वान विशिष्ट कोटि के हैं, यथार्थबुद्धि वाले हैं, क्योंकि शान-क्रिया दोनों को मुक्ति का साधक बताकर थे वास्तविक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं ॥ ३० ॥
[ज्ञान से ही मोक्ष-ज्ञानवादिपक्ष ] ३२ वीं कारिका में शानयादी का मत प्रदर्शित किया गया है ! कारिका का अर्थ इस प्रकार हैज्ञान ही इष्ट फल की प्राप्ति का साधन है । क्योंकि फलोपाय के यथार्थशान से फलप्राप्ति