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स्या. क. दीका-हिन्दीविवेचन]
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दोषान्तरमभिधातुमाह-- बुद्धावणेपि चाग्दोषः संस्तवेऽप्य गुणस्तथा । आह्वाना प्रतिपक्ष्यादि शब्दार्थाऽयोगतोध्वम् ।।२९।।
बुद्धावणेऽपि च बुद्धाऽश्लाघायामपि च अदोषः-दोषाऽप्रसङ्गः प्रामोति परस्य, बुद्धावर्णस्य बुद्ध विशेष्यकापकृष्टत्वप्रकारकज्ञानजनकत्वाभावात् । तथा, संस्तवेऽपि-बुद्धस्तुतिकरणेऽपि, अगुणः = गुणाभाषप्रसङ्गः, बुद्धसंस्तववर्णस्य बुद्धविशेष्यकोत्कृष्टत्वप्रकारकज्ञानजनकत्वाभावात् । तथा आलानाप्रतिपत्त्यादि-आह्वाने कृतेऽप्यप्रतिपत्त्यप्रवृत्त्यादि, शब्दार्थाऽयोगतः शब्दार्थसंबन्धाभाव इप्यमाणे, ध्रुवम् आवश्यकम् । 'बुद्ध्याकारे बहिरर्थाऽध्यासात् सर्वमिदं नोपपन्नम् इति स्वीदृशविशेषदर्शिनः परस्य कथं समाधानं शोभते ! । अथानुमानिकश्चैत्यज्ञाने सत्यपि पित्तदोषेण शो पीतिमाध्यासवद् विशेषदर्शिनोऽप्यदिशो लोकवासनादोषाद् न प्रकृताध्यासानुपपत्तिरिति चेत् ! न, अधिष्ठानतज्ज्ञानाऽभावेऽभ्यासानुपपत्तेः । असाक्षात्कारिभ्रमस्य विशेषदर्शनमात्रनिवर्णत्वनियमाञ्च; अन्यथा
[बुद्धनिंदा में दोपाभाव की आपत्ति ] अवस्तु को शब्दवाच्य मानने पर बुद्ध की निन्दा करने पर भी कोई दोष न होगा । क्योंकि बुद्ध की निन्दा के लिये प्रयुक्त शब्द से युद्ध में अपकृष्टस्य का ज्ञान नहीं होगा। यतः अवस्तु शश्नवाच्य होने से अपकर्ष बोधनार्थ प्रयुक्त शब्द से यास्तव अपकृष्टस्य का बोध दुर्घट है। इसी प्रकार बुद्ध की स्तुति करने पर भी कोई गुण-पुण्य नहीं होगा, क्योंकि अवस्तु की शम्श्याच्यता के पक्ष में बुद्ध के स्तुति वचनों से बुद्ध के उत्कृष्टत्व का शान नहीं होगा । उक्त दोष के साथ ही यह भी एक दोष है कि पक मनुष्य द्वारा दुसरे मनुष्य की भावान किप जाने पर आहूत व्यक्ति का आह्वान कर्ता की ओर आभिमुख्य या उसकी और चलने में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि अवस्तु की शब्दषाच्यता के पक्ष में शब्द और अर्थ के बीच कोई सम्बन्ध ही नहीं है । बौद्ध की ओर से यदि यह समाधान किया जाय कि 'बुद्धि आकार में बाह्य अर्थ का अध्यास होने से उक्त दूषण समूह नहीं हो सकता' तो उसका यह समाधान कैसे समीचीन हो सकता है। क्योंकि धस्नुमात्र को खुद्धि आकार रूप समझते हुए बाद्यार्थ का अध्यास सम्भव नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि जैसे शा में श्चैत्य का आनुमानिक झान रहने पर भी मंत्र के पित्त दोष से ग्रस्त होने पर शङ्ख में श्चत्य का प्रत्यक्ष भ्रम होता है उम्मीप्रकार खुद्धयाकार का बोध होने पर भी लोकवासनारूप दोष से बा अर्थ का अध्यास हो सकता है तो यह टीक नहीं है । क्योंकि अधिष्ठान और अधिष्ठानज्ञान के बिना अध्यास का उदय नहीं होता। अतः अवस्तु की शब्दवाच्यता के पक्ष में शब्द से अवस्तु का ही ज्ञान होने से अधिष्ठान का अस्तित्व न होने के कारण शब्द हेतुक अभ्यास नहीं हो सकता ।
दूसरी बात यह है कि साक्षात्कार से भिन्न सभी भ्रम , विशेषदर्शनमात्र से प्रतिबध्य होते हैं । अतः बुद्धनाकार के दर्शन से शब्दाधीन बाह्यार्थ भ्रम बाधित होने से बाह्यार्थ का शब्दमूलक अध्यास सम्भव नहीं है । यदि साक्षात्कार से भिन्न भ्रम को विशेषदर्शनमात्र से निवयं न माना जायगा तो क्षणिकत्वानुमान से बौद्ध के अक्षणिकत्यारोप की निवृत्ति नहीं होगी ।