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________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २९१ तत्र प्रथम ज्ञानवादिमतमुपन्यस्यतिज्ञानं हि फलदं पुंसां न क्रियाकलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य फलप्राप्तेरसंभवात् ॥३१॥ ज्ञान हि-ज्ञानमेव, फलदम्-ईहितफलहेतुः, पुंसाम्फ लार्थिनां फलोपायं प्रमाय प्रवर्तमानानाम् , फलाऽव्यभिचारदर्शनात् । न क्रिया फलदा मताः कुतः ! इत्याह-मिथ्याज्ञानात्-उपायत्रमात् प्रवृत्तस्य पुरुषस्य फलप्राप्तेरसंभवात् । न हि मृगतृष्णिकाजलज्ञानप्रवृत्तस्यापि तदवाप्तिरिति भावः । आगमेऽप्युक्तम्-“ पढमं नाणं तमो दया'' इत्यादि । इत्यतोऽप्ययमर्थः सिध्यतीति द्रष्टव्यम् ।। ३१ ॥ 'ज्ञानोत्कर्षाऽपकपाभ्यां फलोत्कर्षाऽपकर्षयोरपि ज्ञानस्यैव फलहेतुत्वम् , क्रियो कषऽपकपयोस्तत्राऽतन्त्रत्वात् ' इत्यभिप्रायवानाज्ञानहीनाश्च यल्लोके दृश्यन्ते हि महाक्रियाः। ताम्यन्तोऽतिचिरं कालं क्लेशायासपरायणाः ॥३२॥ ज्ञानहीनाच-सम्यगुपायपरिज्ञानविकलाश्च, यत्-यस्मात् , लोकेजगति, महाक्रियाः= अपेर्गम्यमानत्वाद् महाक्रिया अपि पुरुपाः काष्टवाहकादय: क्लेसायासपरायणा: शारीर-मानसदुःखपराः, अतिचिरं कालं ताम्यन्तः क्लिश्यन्तः श्यन्ते, हि निश्चितम् , न तु क्रियोत्कर्षेऽप्युस्कृष्ट फलं लभन्ते ।। ३२ ॥ तथा, ज्ञानवन्तश्च तद्वीर्यात्तत्र तत्र स्वकमणि। विशिष्टफलयोगेन सुखिनोऽल्पक्रिया अपि ॥३३॥ ज्ञानचन्तश्व-सम्यगुपायपरिज्ञानोऐताश्च नदीत ज्ञानोत्कर्षात् तत्र तत्र-अधिकृते स्वकर्मणि के लिए प्रवृत्त होने वाले पुरुषों को फल की प्राप्ति देखी जाती हैं। क्रिया फल प्राप्ति का साधन नहीं है क्योंकि फलोपाय के मिथ्याज्ञान से फल प्राप्ति के लिए क्रियाशील होने पर मी फल की प्राप्ति नहीं होती । आगम में भी यह कहकर कि “पहले ज्ञान प्राप्ति और तब दया होती है।" उक्त अर्थ की पुष्टि की गयी है ॥ ३१ ॥ १२ वीं कारिका में ज्ञानयादी का यह आंभिप्राय यर्णित है कि ज्ञान के उत्कर्ष-अपकर्ष से फल में उत्कर्षाऽपकर्ष होता है। इस से भी शान की ही फलहेतुता सिद्ध होती है। क्रिया के उत्कर्ष और अपकर्ष से फल का उत्कर्ष अपकर्ष नहीं होता। कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार में यह देखा जाता दें कि जिन फलोपाय का यथार्थ बोध नहीं होता वे अत्यन्त क्रियाशील होने पर भी फलप्राप्ति से वञ्चित रहते हैं । लकड़ी आदि बोज दोने का कार्य करने वाले मनुष्य शारीरिक क्लेश और मानसिक पीडा उठाते हुए चिरकाल तक अपनी क्रिया में लगे रहते हैं । किन्तु अपनी क्रिया के उत्कर्ष के अनुसार उत्कृष्ट फल की प्राप्ति नहीं कर पाते ।। ३२ ॥ उक्त सन्दर्भ में ही ३३ वीं कारिका अवतरित है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है फलोपाय के सम्यक् शान से सम्पन्न मनुष्य अपने शानोष के कारण रत्न व्यापार आदि अपने कर्म में अल्प क्रियाशील होने पर भी प्रचर धनरुप फल की प्राप्ति कर के क्रिया की अल्पता के कारण उनके लाभ में अल्पता नहीं होती । धर्म क्रिया के सम्बन्ध में भागम में भी कहा गया है कि अज्ञानी जिस कर्म को कोटि धर्षों में निवृत्त करता हैं, शानी मन-वचन-काया से गुप्त हो कर उच्छ्वासमात्र में ही उसे निवृत्त करता है ॥ ३३ ॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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