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[शाखवा० स्त० १०/३६
'दूरत्य-नैकट्याभ्यां तार-मन्दादिभेदेन भेदे चुचे साजात्यमेव प्रत्यभिज्ञाविषय' इति चेत् ! न, परिणामभेदेऽपि रक्ततादशायां घटस्येव परिणामिनस्तस्य सर्वथाऽभेदात् । अत एवानुश्रेण्या विश्रेण्या वा मिश्राणामेव पराधातवासितानामेव च शब्दद्रव्याणां श्रवणाभ्युपगमेऽपि न क्षतिः । न च क्षणिकत्वं शब्दस्य प्रत्यभिज्ञायां बाधकम् , तत्र मानाभावात् , शब्दजनकशब्दस्य कार्यशब्देन शब्दजन्यशब्दस्य कारणशब्दनाशेन नाशकल्पने गौरवात्, उच्चरिसशब्दस्य श्रोत्रदेशागमनकल्पनस्यवोचित्यात् : अन्यथा कत्वादिविशिष्टलौकिकप्रत्यक्षानुपपत्तेश्च । से धनुष से छूटने वाला बाण भी क्षणिक होने पर भी अन्यान्य सजातीय बाण की उत्पत्ति के कम से दूरस्थ लक्ष्य का बेघरूप कार्य कर सकता है। अत: बाण को भी स्थिर न मान कर क्षणिक मानन की आपत्ति होगी। यदि धनुष से पृथक् होने वाले और लक्ष्य का वेध करने वाले बाण में पंक्य की प्रत्यभिशा होने से उस की क्षणिकता को अस्वीकार्य माना जाएगा तो शब्द की भी क्षणिकता स्वीकार्य न हो सकेगी क्योंकि देवदत्त आदि के कण्टोत्पन्न शछन् और श्रूयमाण शब्द के ऐक्य को विषय करने वाली 'देवदत्त से उच्चारित शरद को ही सुन रहा हूँ ' इस प्रकार की अबाधित प्रत्यभिशा होती है।
यदि यह कहा जाय कि-श्रोता से दूरस्थ वक्ता का शब्द तार, और निकटस्थ वक्ता का शब्द मन्द होता है। अत: तार मन्द आदि के भेद से दूरस्थ और निकटस्थ शब्द में भेद के निर्विवाद होने पर भी जसे उन के सजातीयाऽभेद की प्रत्यभिशा होती है, उसी प्रकार सर्वत्र सजातीयाभेद द्वारा शविषयक प्रत्यभिशा की उपपत्ति सम्भय होने से उस के द्वारा शब्द के स्थैर्य का माधन नहीं हो सकता...'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे परिणामभेद होने पर भी रक्ततादशा का घट झ्यामतादशा के बट से अभिन्न होता है, उसीप्रकार तारन्य मन्दा आदि परिणामों का भेद होने पर भी परिणामी शब्द की अभिन्नता अबाधित रह सकती है।
[ शब्द परिणामी द्रव्य होने से शास्त्रकथनसंगति ] शब्द को द्रश्य मानने पर यह शंका हो सकती है कि यदि श्रोता को आधोत्पन्न शरद का ही श्रयण मानेंगे तो अनुश्रेणी-उच्चारकों की ऋमिक पहिल-में एवं विश्रेणी-उच्चारक की पविक्त से भिन्न श्रेणी में मिश्र पाघ्र प्रगघातवासित शब्दों का श्रवण होता है-आपके इस शास्त्रकथन में असंगति की आपत्ति होगी-' तो ऐमी शंका में कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर भी मिश्र और पराघातवासित शब्द मूल शब्द के ही परिणामविशेष होने से परिणामी शब्द की अभिन्नता बनी रहती है।
यदि यह कहा जाय कि 'क्षणिकन्य शब्द की प्रत्यभिशा में बाधक है, अतः प्रत्यभिक्षा से शब्द की स्थिरता नहीं सिद्ध हो सकती-'तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योकि शध्द के क्षणिक होने में कोई प्रमाण नहीं है। कहने का आशय यह है कि शब्द को क्षणिक मानने पर उसकी उपपत्ति के लिए जन्य शब्द से जनक शब्द का तथा जनक शब्द ( उपान्त्य शब्द ) से जन्य चरम शब्द का नाश मानना होगा। अतः शब्द का क्षणिकत्व पक्ष शब्द नाश की विविध कल्पना से गौरवग्रस्त होगा। इसलिए यही मानना उचित है कि अन्यत्र उच्चारित शब्द श्रोता के श्रोत्र तक वेग से पहुँचता है।